nahin viram liya hai

मेरे प्राण प्रेम के प्यासे
भटक रहे हैं जग में बेसुध शिशु ज्यों बिछुड़ा माँ से

सन्मुख देख अगम तम सागर
नौका हित देता मैं चक्कर
श्रद्धा बिना बुद्धि के हैं, पर

सभी प्रयत्न वृथा-से

तू ही तू ही जब निखिल सृष्टि में
भय क्या यदि वह तट न दृष्टि में!
क्षण-क्षण होती कृपा-वृष्टि में

क्यों मैं मरूँ तृषा से

जड़ता का आवरण हटा दे
सोयी अंतर्ज्योति जगा दे
आस्था की वह दीपशिखा दे

भ्रम के फटें कुहासे

मेरे प्राण प्रेम के प्यासे
भटक रहे हैं जग में बेसुध शिशु ज्यों बिछुड़ा माँ से