nahin viram liya hai

मलिनता है मेरे ही मन की
जिससे ढँकी हुई है आभा रवि के भी आनन की

स्मित नयनों से हर लेती जो पीड़ा अपने जन की
क्यों मेरे ही लिये रही वह मूर्ति मात्र पाहन की !

श्रद्धा-ज्योति बिना गति क्या हो इस नश्वर जीवन की!
मुझको तो ले डूबी मेरी ही शंका क्षण-क्षण की

केवल शब्दों की माला ही नित तुमको अर्पण की
क्या न बचा लोगे प्रभु ! मुझको देकर शरण चरण की

मलिनता है मेरे ही मन की
जिससे ढँकी हुई है आभा रवि के भी आनन की