nahin viram liya hai
मन! तू दुख से क्यों घबराये!
प्रेमी तो दुख में भी अपने प्रिय की ही छवि पाये
सुख जिसकी मोहक माया है
दुख भी उसकी ही छाया है
वह तुझसे मिलने आया है
नित नव रूप सजाये
क्यों तू फूलों से ही खेले
काँटों की कटु चुभन न झेले !
जो भी दे वह, उसे न ले ले
सादर शीश झुकाये
पीड़ा जब मथती है अंतर
मोती चू पड़ते गालों पर
क्यों न स्वरों में उन्हें पिरोकर
जग की भेंट चढ़ाये!
मन! तू दुख से क्यों घबराये!
प्रेमी तो दुख में भी अपने प्रिय की ही छवि पाये