nahin viram liya hai
बाँसुरी बजती है अंतर में
चलता हूँ मैं तम में श्रद्धा-ज्योति लिए निज कर में
सुन जिनको भारत के रण में
बोध हुआ अर्जुन के मन में
पड़ते ही वे शब्द श्रवण में
भय मिटता क्षण भर में
महाकाल जब आँख दिखाता
ज्यों कोई फिर मुझे सुनाता–
‘चित्-स्वरूप तू कब मिट पाता
अणुओं के चक्कर में!
‘पाया ज्यों नर-तन मर-मरकर
पायेगा आगे छवि शुचितर
तेरे साथ रहूँगा, मत डर
सदा सृष्टि-पथ पर, मैं ‘
बाँसुरी बजती है अंतर में
चलता हूँ मैं तम में श्रद्धा-ज्योति लिए निज कर में