nahin viram liya hai
कहीं भी हो, मथुरा या काशी
झलक उसी छवि की पाता मैं जो है अंतरवासी
करके भी अणुओं का लेखा
खींच अनंत शून्य में रेखा
नहीं रूप हो उसका देखा
था जिसका अभिलाषी
पर जो काल-कालिका अविदित
रच-रच मिटा रही भव अगणित
वही खेलती है मुझसे नित
आँख-मिचौनी माँ-सी
उसकी ही क्रीड़ा से जगमग
प्रिय लगता है मुझे निखिल जग
नश्वर हो यह, पर उसके सँग
मैं तो हूँ अविनाशी
कहीं भी हो, मथुरा या काशी
झलक उसी छवि की पाता मैं जो है अंतरवासी