nao sindhu mein chhodi

तूने मुझको कितना चाहा
यद्यपि मैंने कभी भूलकर भी तुझको न सराहा!

महाकाल जब झपटा तेरी करुणा आड़े आयी
जलते घर से मुझे खींचकर पल में बाहर लायी
मैं भूला था पर अपना प्रण तूने सदा निबाहा

इस अनंतता में तूने मुझको सुविशेष बनाया
छिपकर पकड़े हाथ प्रेम का महाकाव्य लिखवाया
कालिदास बन बैठा विद्या-बुद्धि-हीन चरवाहा

तूने मुझको कितना चाहा
यद्यपि मैंने कभी भूलकर भी तुझको न सराहा!