nupur bandhe charan
जादू का देश
मैंने देखा एक अपरिचित
पीत-वदन, कृश-अंग, म्लान-स्मित
भटक रहा था चरण-कंटकित
वह उजाड़ वन में
सिर पर प्रखर तपनि था जलता
पीड़ा से कातर कर मलता
झाड़-झँखाड़ों में ज्यों चलता
शव था जीवन में
तार-तार थे कपड़े तन क्रे
ध्वज फहरे-से पागलपन के
लिपट कभी ढूँठों से वन के
वह सिसकी भरता
थिरक रही थीं क्षीण उँगलियाँ
जैसे मलयानिल में कलियाँ
हों मानों कुछ शब्दावलियाँ
स्मृति में स्थिर करता
देख मुझे रो पड़ा अभागा
भय से कुछ बकता-सा भागा
फिर ममत्व ज्यों मन में जागा
मुड़ लग गया गले
पीपल-पात समान काँपता
“कामरूप’ कह थकित, हाँफता
गिरा दाँत से ओंठ चाँपता
मूच्छित, चरण-तले
वन था स्तब्ध, न पशु-पक्षी-स्वर
सुन पड़ता था दूर कहीं पर
तरुओं की छाया भी निःस्वर
भूमि-रचित-सी थी
एक पहाड़ खड़ा था हटकर
पश्चिम में योद्धा-सा डटकर
उड़ती चील नील नभपट पर
चित्र-खचित-सी थी
हिलता थी समीर मे हौले
नागफणी फणि-सा मुँह खोले
फुदक रहे थे तिनके को ले
हारिल चाँचों में
फूल ढूँढ़ते फिरते थे अलि
ढूँढ़ कहीं से मैं जल-अंजलि–
लाया, कंपित थी रोमावलि
भावों सोचों में
दिन डूबा, सुनसान गगन से–
फिरते-थे खग-यूथ मगन-से
मुख पर कुछ जल के सिंचन से
संज्ञा-चिन्ह फिरे
उगते दो तारों-से नभ से
चमक उठे लोचन निष्प्रभ-से
पर क्षण ही, पर-ज्वलित शलभ-से
पर द्युति-हीन गिरे
संध्या-नभ-सा श्याम बना मुख
बायाँ हाथ उठाकर सम्मुख
बोला वह जैसे मूर्तित दुख
मुखरित आप बना
‘देखो डूब रहा घाटी में
रवि नित की-सी परिपाटी में
उस पर्वत पर की ‘जाँटी” में
रखकर तिमिर घना
“प्रात समय जिसके तम-पथ पर
उठता यह सोने के रथ पर
है भारत के पूर्वी-अथ पर
भू वह स्वर्णमयी
कौतुकमय हैं जिनकी कृतियाँ
इंद्रजाल-विद् जहाँ युवतियाँ
बदला करती हैं आकृतियाँ
नित-नित नयी-नयी
‘धरे जाहृवी-जमुन-किनारे
उस अति दूर देश को हारे
जाते रात-दिवस बनजारे
कंचन पाने को
मध्य ग्राम, पुर पड़ते कितने
अंबर-पथ पर तारे जितने
जाते भूल, लुब्ध वे इतने
फिर घर आने को
‘इधर प्रेम-वंचित अभागिनी
गातीं व्याकुल विरह-रागिनी
“रात पिया बिन काल-नागिनी
डँसने को आयी
दिवस बीतते काग उड़ाते
अश्व मदन के बंध तुड़ाते
छोड़ गये जो व्यथा छुड़ाते
बाँह पकड़, माई ! “
दृष्टि चतुर्दिक् उसने डाली
रात मसान-सदृश थी काली
प्रेतों-से करते रखवाली
ठूँठ अडिग-पल थे
बियावान जंगल दसकोसी
दूर-दूर तक थी खामोशी
चिता-सदृश अंबर में रोषी
तारे झलमल थे
‘ऐसी ही थी काल-रात्रि वह
सहने को प्रस्तुत, दुख दुःसह
मैं गृह की कांति को बिदा कह
बाहर था आया
आह! मुझे था अलग न होना, ‘
पढ़ता ज्यों कुछ जादू-टोना
बोला वह, क्षण भाव सलोना
मुख पर लहराया
‘कितने अश्रु-सजल चुंबन में
रख मन की साधें सब मन में
छोड़ सदन-सारिका सदन में
भारी अंतर से
दल के साथ-साथ पग श्लथ धर
बिछुड़ा हुआ चला तम-पथ पर
पहुँचा मैं पूरन के अथ पर
दूर देश घर से
‘कितने दिन, कितनी ही रातें–
कटीं, याद कर घर की बातें
छू न गई थीं विषमय घातें
अभी चपल मन की
उड़ी पखेरू-सी प्रिय पाती
संदेशे लाती, ले जाती
रक्षित थी यौवन की थाती
अश्रु-धुले प्रण की
‘और एक दिन चढ़ा नाव में
मैं जाता था दूर गाँव में
नदी किनारे घनी छाँव में
दो वट पेड़ों की
वे कुमारियों थों जिनके डर
वहाँ न पाते मानुष पग धर
जो क्षण में नर की देतीं कर
आकृति भेड़ों की
‘देख मुझे वे खड़ी हुईं झट
इंगित करके खींच लिये पट
बोली एक, पथिक | रुक पनघट–
पर, पानी पी लो
दूर देश से चलकर आये
कड़ी धूप में हो कुम्हलाये
तृषावंत आ देश पराये
मरो न यों, जी लो
“मैंने चाहा, आँख मोड़कर
भाग चलूँ घर, नाव छोड़कर
डूब सकूँ पतवार तोड़कर
जल के तल में भी
आयी याद प्रिया अबोध-मुख
नयी वधू ने देखे क्या सुख!
और जा रहा था मैं सम्मुख
बूझे छल में भी
‘रोये रोएँ-रोएँ तनकर
तन-मन काँप रहे थे थर-थर
विवश बनी तट की दिशि मंथर
नौका जाती थी
चितवन चमकी स्निग्ध दुग्ध-सी
मन की इच्छा के विरुद्ध-सी
चेतनता सर्पिनी मुग्ध-सी
झोंके खाती थी
चुंबक-पर्वत की दिशि जैसे
खिँचे जहाज वृहत् अति, वैसे
खिँचता था मैं शंका, भय से
उनके जादू से
लगते सब भू-व्योम-अनिल-जल
मंत्रित-से थे, रवि-शशि अचपल
सम्मुख उनके मनुज-यत्न-बल
थे बेकाबू-से
‘देखा मैंने वह कंचन-पुर
छम-छम बजते मधु के नूपुर
हार नौलखा से भूषित उर
सुंदर लगते थे
रत्न-खचित थे महल अनूठे
काँच कौन कह देता झूठे!
अधर, आह! कितनों को जूठे
मधु-से ठगते थे
‘दिन-सी हँसती रातें काली
जगती जगमग नित्य दिवाली
वे ऊँची अटारियोंवाली
टोने पढ़-पढ़कर
पिंजर-बद्ध बना मुझको शुक
रजत कटोरे रखकर सम्मुख
भाँति-भाँति के देती थीं सुख
सोने से मढ़कर
‘ऋतु पलटी, पलटे युग, संवत्
बीत गये दिन, पक्ष, मास शत
मधुकर-सा कलि-उर-गुंजन-रत
मैं सब कुछ भूला
यह माया नगरी है सपना
सोच न, अंत पड़ेगा तपना
सुख वह भाग्य समझ कर अपना
था फूला-फूला
‘जो होता बारह वर्षों पर
था देवी-पूजन-उत्सव वर
अति प्राचीन रहे जो थककर
दूत वासना के
(भरे युवतियों से पथ सँकरे)
जिनके उर शोभित थे गजरे
जाते थे बलि को वे बकरे
गृह उपासना के
‘शून्य कक्ष में एक अल्प-वय
आयी बाला, मुख-अंकित-भय
बोली मंद, सदय, “वे निर्दय,
आह! नहीं मानीं
मेरे विहग! उड़ चलो, भागों
अब भी सुख-निद्रा से जागो
रल-पाश की ममता त्यागो,
ओ भोले प्राणी!
‘आह ! तुम्हें सब कुछ कह देती,
क्यों मैं यह संकट हूँ लेती
यदि न प्रेम में अंचल भेती
तोड़ रीति कुल की
भागो होड़ पवन से बदकर
इस नगरी की पश्चिम हद पर
जादू की सीमा है नद पर
बने हुए पुल की”
मैं बढ़ चला पंख फैलाये
पुर-वधुओं की आँख बचाये
घाट नदी के तट के आये
देखा ज्यों फिरकर
उड़ी आ रही थीं अश्रुत-सी
पीछे कुछ परियाँ मारुत-सी
श्याम अलक फैला, विद्युत-सी .
मेघों से घिरकर
‘छू न सकीं मुझको पुल तक जब
जान मंत्र-बल से सब करतब
मुझे प्राणदात्री का, वे सब–
उसी ओर दौड़ीं
मसल दिये वे गाल फूल-से
रौंद मृदुल तनु-लता मूल से
रक्त वसन पर फूँक धूल से
फेंकी चित कौड़ी
‘तोड़ चंचु से तन का तागा
मानुष-चोला पा मैं भागा
मन ने कहीं विराम न माँगा
विकल प्रिया-स्मृति कर
जोगी बनकर अलख जगाता
घर-घर भीख माँगता, खाता
चला, विकल रोता-पछताता
बीते अवसर पर
‘शत-शत नगर-ग्राम से होता
पथ पर सतत जागता-सोता
मैं बढ़ता था धीरज खोता
पश्चिम की दिशि में
गति, केवल गति, गति थी जीवन
आगे, बस आगे ही क्षण-क्षण
चलता जाता था अधीर बन
दिवस और निशि में
“आज यहाँ, कल वहाँ, इस तरह
सह पथ के कितने दुख दुःसह
आज यहाँ हूँ कथा तुम्हें कह
जी हलका करता
अब सब हिम्मत छूट रही है
नस-नस कसकर टूट रही है
रोम-रोम से फूट रही है
पीड़ा, कातरता
‘अब भी आँके सेंदुर सिर में
सजा आरती उसी अजिर में
बैठी होगी गृह-मंदिर में
वह विरहिन बाला
गाती, “अब सुधि लेगा बालम
यौवन-पंछी और तनिक थम
बारह वर्ष गये, अब प्रियतम
है आनेवाला
“बहती आज पवन पुरवैया
आयेगा सच आज खिवैया
डगमग मेरी जीवन-नैया!
दो दिन रह तिरती
आह! वसंत! रुका रह, भाई!
होगी तेरी भी पहुनाई
मेरी भी अब देख, गँवायी–
बाजी है फिरती” !
कह न सका आग कुछ भी वह
दृग थे सजल, यंत्रणा दुःसह–
व्यापी ज्यों तन-मन में, ‘उफ’ कह
लेट गया भू पर
चलने लगी साँस जोरों से
दोनों नयनों की कोरों से
ढुलके दो आँसू चोरों-से
गालों के ऊपर
अस्फुट स्वर में फूटी वाणी
‘मृत्यु, हाय! पथ में थी आनी!’
बोला मुझसे, “बंधु। निशानी–
लो, इतना करना
यदि जा निकलो दूर देश में
तुम मेरे प्यारे स्वदेश में
तो मेरे घर पथिक-वेश में
पथ का श्रम हरना
‘कहना उससे एक अपरिचित
मुझे मृत्यु के क्षण, कर में धृत
दे मुद्रिका गया दूरस्थित
छायामय जग में
दूर, सुदूर देश से चलकर
लौट रहा था वह अपने घर
लेकिन पथ के ही अंचल पर,
साँप डँसा पग में’
आँखें थीं पथरायी जातीं
फूल रही थी रह-रह छाती
बोली अब थी निकल न पाती
शेष परीक्षा में
सहसा चीख उठा वह ‘आया,
पास तुम्हारे मैं, मनभाया
देवि! बहुत तुमने दुख पाया
विफल प्रतीक्षा में!
हिचकी आयी जैसे तन से
एक हवा-सी निकली सनसे
फटी पुतलियाँ, शव-लक्षण से
लटक गया सिर भी
पर आश्चर्य, सामने तानी
थीं जिसमें मुद्रिका पुरानी
बायें कर की उँगली कानी
हिलती थी फिर भी
1941