nupur bandhe charan

तम से बँधा प्रकाश, मृत्यु से जीवन, जड़ता ने गति बाँधी
बँधा इस तरह मैं, भू-नभ के बीचोंबीच बँधे ज्यों आँधी
सागर के दोनों कूलों पर मैंने नाव टिकानी चाही
दो दुनिया हैं मेरे दो हाथों में, दोनों आधी-आधी

अंधकार लहरों के तट पर, मैं प्रकाश में ढँका अकेला
मेरे चारों ओर लगा है चंचल छायाओं का मेला
मैं इनका हो सका न, पर जिनका, वे मेरी हँसी उड़ाते
देख दूर से छोड़ न पाते मुझे सुनहली सागर-वेला

मैंने कहा, स्वप्न मिथ्या है और सत्य भी मुझे न भाया
मैं अंबर का हो न सका, धरती के हित हो गया पराया
मैख्वारों, दुनियादारों, दोनों ने दूर हटाया मुझको
कहा एक ने ढोंगी, पागंल समझ दूसंरा कुछ मुस्काया

कहा जीवितों ने मृत मुझको, मृत्यु साँस से डरकर भागी
काया लादे हुए प्रेत-सा फिरा चतुर्दिक मैं गृहत्यागी
खड़ी दो युगों के संधिस्थल पर ज्यों किसी महाकवि की कृति
मैं जागा तब दुनिया सोयी, मैं सोया तब दुनिया जागी

1946