nupur bandhe charan

देख रहा मैं सम्मुख स्मृति-से धुँधले नील गगन को
किस अरण्य में लिये जा रही किरण उड़ाकर मन को ?
सप्त सिंधु के पार सांध्य-नगरी में
जहाँ दीप तारों के जलते धीमे
चला जा रहा हूँ मैं डरता जी में
पछतावे-सा, छोड़ स्वप्न-सा, पथ पर भारी तन को
प्रस्तर बने वहाँ के सब अधिवासी
शून्य हाट, पुर, भवन, अनंत उदासी
कंठ मसोस रही यह कैसी फाँसी!
सह पाऊँगा मैं इन कंकालों के आलिंगन को!
तिमिर-प्रेत-से भीषण दाँत निकाले
बेध रहे स्मृतियों के जलते भाले
कौन आह! ये भीषण आकृतिवाले
वज्र-मुष्ठि से चूर-चूरकर बिखराते चेतन को?
देख रहा मैं सम्मुख स्मृति-से धुँधले नील गगन को
किस अरण्य में लिये जा रही किरण उड़ाकर मन को ?

1943-44