nupur bandhe charan

अश्रुकण झरते रहे, प्रिय तड़ित-सी हँसती रही तुम

आज उड़ने को विकल हैं प्राण-खग दृग-खिड़कियों से
स्वर्ण-सी काया तुम्हारी गल गयी कटु झिड़कियों से
यह उदास तटस्थ मुख की दृष्टि मैं पहिचानता हूँ
वक्ष यह फूला, रुँधा, घुटता रहा है सिसकियों से

ज्योति-लांछित शून्य कोने में घुली, उमड़ी, बही तुम

स्वार्थ को दूँ दोष मैं! युग से पुरुष की यह कहानी
कब न जाने बँध गये थे, साथ पत्थर और पानी!
रागिनी मेरी! प्रणय-मकरंद-धौत सुवर्ण-लतिके!
मान मैं सौ बार भूला, रूठ तुम सौ बार मानी

दैन्य मन का एक पल भी देख थी सकती नहीं तुम

कब भला तुमने क्षितिज पर चाँदनी का देश देखा!
कब बिठाकर अंक में सजते मुझे निज केश देखा!
मिलन की मधुरात भी रोते-बिलखते ही बित्तायी
मिट गया असमय, हृदय ने जो पुलक-उन्मेष देखा

मानिनी! सब कुछ सहन करने लगी थी आप हीं तुम

शुष्क, श्वेत कपोल हिम-से, रुक्ष अलकों में गड़े-से
मलिन दृग-तारक, गगन से ज्योतिहीन ढुलक पड़े-से
क्षीण, गौर कलाइयों में रोक रक्खी चूड़ियाँ दो
चित्र निष्प्रभ, अंग खो लावण्य, शय्या में जड़े-से

देखता हूँ मैं चकित-सा, रूप की प्रतिमा वहीं तुम!

आज मेरी भूल सारी भूल जाना चाहती हो!
स्नेहमय पा स्पर्श सिर पर, फूल जाना चाहती हो!
पर अतीत मिटा निमिष में! सरल है न भविष्य इतना
क्षमामयि ! दोषी पगों की धूल पाना चाहती हो!

यह नहीं पाथेय, जाना चाहती यदि बेकहे तुम
अश्रुकण झरते रहे, प्रिय तड़ित-सी हँसती रही तुम

1946