nupur bandhe charan

परशुराम का पश्चाताप

(परशुराम ने पिता के आदेश पर अपनी माँ रेणुका
का मष्तक कुठार से छिन्‍न कर दिया था।)

फैला के समुद्र के सुनील पंख अंबर में
उड़ती न भूमि क्‍यों सत्रस्त सांध्य खग-सी
चंद्र तारकों के पार? क्षुत्र ज्योति-पुंज यह
डोलता प्रभात से विवर्ण साँस तक जो
स्वर्ण-श्रृंग, दीप्त, मेरुओं पर, पक्व फल-सा
टूट गिरता न क्‍यों अनंत महाशून्य में?
हाय, यह यंत्रणा से जलता हृदय क्‍यों न
फूटके बिखरता धरा पर धूमकेतु-सा?
मैं न हूँ पाषाण, मृत्तिका हूँ मैं न ठूँठ जड़
दग्ध मरुभूमि का, कठोर मातृघात का
महाविष पीकर भी मौन रहूँ हँसता।
गलित प्रतप्त लौह में समुद कूदता मैं
सीधा दौड़ जाता तीक्ष्ण धारा पर कृपाण की
निःशब्द, मत्त गजराज के चरण-तले
रौंद दिया जाता तुच्छ वनज कुसुम-सा
किंतु यह वेदना असह्य है हृदय की।
पिता का प्रबोध, कर्तव्य-गर्व, न्याय-बल
देते न सहारा, इस घोर मनस्ताप में
देखता हूँ आप अपना मैं किया पाप-कर्म
जैसे देखता हो कोई सागर किनारे खड़ा
क्षीण प्रतिबिंब निज लहरों में मिटता।
अब भी वह क्षण, हाय ! स्मृति में खिँचा है मेरी
प्यारभरी दृष्टि वह स्नेह का उलाहना
झुक वीर पुत्र की बलायें लेना मोद से,
माता का सहज निःस्वार्थ वह प्रेम, हाय!
मुझको मिलेगा कहाँ अब इस सृष्टि में!
भौंह चढ़ी देख जब मृग-तुल्य काँप उठी
भीत जन्मदायिनी, हृदय खंड-खंड हो
टूटकर गिरा न क्‍यों उसी क्षण चरण में
धूल जिन चरणों की स्वर्ग-सी पवित्र थी
स्पर्श जिनका था हिम-शीतल सुधांशु-सा!
कटके शरीर से कुठारधारिणी क्‍यों बाँह
लिपट गयी न उस क्षीण, वृद्ध ग्रीवा से

“माँ, माँ’ कहती हुई, गहन पश्चाताप में!
और वह स्मिति अंतकाल की, रहेगी याद
अंतकाल तक मुझे, घृणा और प्रेम का
जिसमें भरा था द्वंद्ध, आत्म-बलिदान का
जिसने सहा था क्रूर परिहास, भाग्य की
वक्रता भुला दी जिसने थी हँस-हँस के।
रक्षक शरीर के, उसे ही चीर डालें हाथ!
नेत्र पथदर्शक गिरा दें अंधकूप में!
जननी बनी थी तुम प्रस्तर की प्रतिमा-सी
पुत्र के ही कर का कुठार देख शीश पर,
पुत्र वह जिससे हुईं थी पुत्रशीला तुम
पुत्र वह प्राण का सदा से जो सहारा था।
आह, क्रूर पिता! यही धर्म था तुम्हारा श्रेष्ठ
तप था महान, यही सिद्धि, यही ज्ञान था!
सहधर्मिणी जो सदा सेवा-रत मूक रही
निःशब्द छाया-सी, अशब्द उसे करके
कौन-सा अलभ्य रत्न प्राप्त तुम्हें हो गया!

याद आता मंजुल प्रभात वह एक दिन
हृदय उमड़ जब कंठ में था आ गया
बोल उठा था मैं पूजा-रत उसे देखकर
‘अंबे! यों ही होता है प्रभात नित्य धरती पर
मानवों के मन में परंतु अंधकार है
सूची-भेद्य, सूझता न अपना पराया भी
इस घोर तम में, किरण एक आशा की
‘फूटती उदय-गिरि-भ्रृंग से न ऐसी जो
भाले-सी महान अंधकार यह भेद दे।

बाहुओं में शक्ति लिये देखता विवश-सा में
कीट-तुल्य रेंगती धरा पर देव-जाति को
अपनी चिता की ओर; अमृत-संतान, हाय!
जल-बुदूबुदों से मिटे ही चले जाते हैं
असमर्थ सहने में इंगित भी भाग्य का।
पशुता का शासन है, न्याय बँधा सींकचों में
मानवों से होकर निर्वासित मनुष्यता
डोलती है हिंस्र पशुओं के बीच वन में,
स्वार्थ का ही मंत्र जपते हैं सभी नारी-नर
वेद-मंत्र-तुल्य, हुई अंधी सब सृष्टि है।’
आँखें भर आयी उसकी थीं करुणा से, हाय!
बोली, ‘वत्स! यह मार्गभ्रष्ट संसार है
दुख से विकल, आर्त तुमको पुकारता,
देखता तुम्हारी ओर मेरे ही हृदय-तुल्य
हृदय वसुंधरा का, ममता से आर्द्र हो;
मुक्ति-दूत एक तुम्हीं, होगी सुखमय सृष्टि
छाया में कुठार के तुम्हारे, मातृ-दुग्ध की
लाज रखनी है तुम्हें तोड़ गढ़ पाप का।
गर्भ में थे जब तुम हरित धरा से नित्य
आती थी पुकार “कहाँ रेणुका का पुत्र है
पापियों का बोझ जो उतार देता छाती से?”
सागर पुकारता था लहरों में बार-बार
“वत्स कहां रेणुका का, कौन शांति दे मुझे !”
आते थे हिमाद्रि की गहन घाटियों से शब्द
उत्तरी पवन पर, “कहाँ है सुत रेणुका का?!
भीत, पुलकित-सी मैं सुनती थी शब्द वे।’

यौवन के स्वप्न मिटते हैं शीघ्र कैसे, हाय!
कौन जान सकता है भाग्य की विडंबना!
आह, दीन नारी! भावनाओं का तुम्हारा पुष्प
काल के चरण से बना था ध्वस्त होने को!
पति जिसे देव-तुल्य पूजती सदा थी तुम
फेंकता यों जीर्ण पादुका-सा तुम्हें क्षण में!
पुत्र जिसे यौवन के बीतते शुरू के दिन
काटी थी कलेजे से लगा के क्रूर यामिनी
पति की प्रताड़ना की, पुत्र वही क्षण में
करने को था यों विद्रोह निज रक्त से!
दोष किसको दूँ अपने को मैं कि भाग्य को
रुद्ध कर देता मानवों का आत्म-ज्ञान जो
सौंपता है अन्य ही करों में कार्य अन्य का!
आह! वह क्रांति-स्वप्न, सत्य यह जीवन का
हँसता है मानो इतिहास मुझे देखकर
घृणा और व्यंग्यभरा मातृघाती नाम दे।
रौंदे डालती है अपनी ही आत्मा को, जैसे!
आत्मा की शक्ति, दृष्टि अपने को खा रही।
जहाँ भी चरण रखता हूँ एक छाया-तुल्य
दिखती है सित-केशी नारी दृग जिसके
रोने से हुए हैं लाल किंतु मुख मौन है।
सागर के तीर, पर्वतों पर, वन, घाटियों में
मृत्यु-सी डरावनी वही है मूर्ति माता की
नींद में भी देती न विराम मुझे पल जो।
सांध्य वारिंदों में दिखता है उसका ही रूप
मध्य निशा में मैं सुनता हूँ चीख उसकी
आती भूमि-गर्भ से, दिखा के लाल-लाल आँख
तारे करते ज्यों उपहास क्रूर मेरा हैं।
दूर कहीं मरु के उजाड़ वन-प्रांतर में
गूँजता है स्वर एक खोये हुए शिशु का,
निज जननी के लिये रोता फूट-फूटकर जो
पेड़-पत्तियों’ से पता पूछता स्वगेह का।
मैं न शिशु, किंतु उससे भी आर्ततर, दीन!
फिरता हूँ निज प्रेत-तुल्य भरे विश्व में
अपनी कथा ही प्रति आनन से सुनता।
पुर, ग्राम, वन, वीथि, हाट-बाट ‘चारों ओर
व्यंग्मभरी लाल-लाल आँखें बेधती मुझे
बनती अपर क्षण मूर्ति दयनीय जो
आँसुओं की युगल बहाती धारा शुष्क, जीर्ण,
झुर्रीदार गालों पर, विवर्ण सांध्य नभ से
मानो टूटती हों युग तारिकायें शून्य में।
रात-दिन फिरता मैं भ्रमित निरुद्देश्य
धूमकेतु-तुल्य चारों ओर भग्न विश्व की
गहन निराशा-रजनी में जलता हुआ।
मिलती न शांति एक क्षण के लिए मुझे।
छाया से मेरी भागते हैं दूर शिशु-वृंद
हाथ उठा वृद्धायें मुझे हैं शाप देतीं
युवकों में कोढ़-सा मैं घृणित अछूत हूँ
था जो शिरमौर कभी जनता के भाग्य का
दीन-दुर्बलों का बल, अंकुश था विश्व के
कुटिल, कठोर, अत्याचारी नृपपुंज का,
भाग्य की विडंबना कठोर है! कठोर है!
हाय! अनुभवहीन बुद्धि की प्रवंचना
कितनी भयावनी है, हाय रे मनुष्य! तू
कितना अबल है परंतु ज्ञान-गर्व में
कितना सबल अपने को, मूढ़! मानता!
बीता जो समय यदि! लौट आता एक बार
देता मैं समस्त आयु एक क्षण के लिए
काटकर जब अपना ही शीश जननी के
पाद-पद्मों पर डाल देता जवा-पुष्प-सा
प्रायश्चित करने को निज महापाप का
और उन आँसुओं की क्षीण सरिता में, हाय!
अर्ध्य निज रक्त का मिलाता पूत होने को,
किंवा शुष्क पत्र-सी-प्रकंपित हथेली बीच
देकर कुठार कहता कि जन्म के समय
घोट दिया था न क्‍यों गला ही इस पापी का
देखना न पड़ता तुम्हें यह कुदिन जो!
छिन्न करो ग्रीवा यह ग्लानि से झुकी जो, देवि!
आज उसी भूल का निवारण हो पल में,
जीवन दिया था जिसे मृत्यु दो स्वकर से।
मृत्यु, जड़ता या शांति, औषधि है एक वही
मुझसे अभागे, क्रूर, मातृघाती जन की
विश्व जिसके लिए विषम कारागार है।
दानवी-सी व्योम-पट पर दौड़ती हुई
मेघपंखी आँधियो! उठाके मुझे फूल-सा
दूर कहीं फेंक दो धरा के अंध कूल पर,
वक्र यम-भौंह-से कराल व्योम-धनु से
छूट, ओ री! मनोवेगधाविनी बिजलियो!
लक्ष्य मुझे साथ लिये भूमि का हृदय चीर
फोड़ती तलातल-वितल धँसो तीर-सी
घोर अंधकारभरे रौरव नरक में
जहाँ रहते हैं मुझ-से ही महापापी जन
सिंधु-तल-वासी कीट-तुल्य रेंगते हुए।
चाहता है वंश ही समूल होना नष्ट आज
जननी! तुम्हारे घोर शाप से मनुष्य का,
जीवन निरर्थक-सा शून्य लगता है मुझे
लौकिक नियम मानो गुड़ियों के खेल हैं
विधि ने रचाये, जन्म, मरण, वियोग-योग
जड़ नियमों-से बँधे होते चले जा रहे,
सत्य मुझे जीवन का इनमें न सूझता।
यश से मिला क्या फल ! अर्थ-काम से भी भला!
क्षणिक सुखों के सिवा लाभ हुआ कौन-सा!
और फिर सुख से भी लाभ क्‍या है, पंगु जो
जीवन की गति में सहस्रों विघ्न डालता!
किंतु गति में ही क्‍या धरा है, मृगतृष्णा-सी
लिए फिरती जो भटकाती विश्व भर में
शैशव से लेकर अनंत मृत्यु द्वार तक!

दुख में भी दुख क्‍या जो दूर भागता है मन!
मन भी तो एक सुख-वृत्ति-लोभी पशु है,
व्यर्थ आशा इससे उचित-अनुचित के
समुचित न्याय की, भरोसा कौन बुद्धि का
आँख मूँदे चलती जो भावना के लोक में
अंतहीन तर्क लिये दीपक-सा हाथ में।
सत्य एक मात्र है गहन यह वेदना
सत्य एक मात्र यह माता का मरण है
मेरे ही कुठार से, कठोर, घोर सत्य है
एक मात्र वर्तमान मानव-हदय का,
भूत या भविष्य काल्पनिक रूपकों से रचे
वर्तमान से हैं दूर भागने के द्वार दो।
भागने के द्वार! हाय! भागूँ मैं परंतु कहाँ
अर्थहीन, शून्य, दग्ध, मरु-तुल्य विश्व से!
स्थान कहीं भी है नहीं मुझसे अभागे का
नरक भी आज मुझे देख मुँह फेरता,
जाऊँ कहाँ बाज-तुल्य उड़कर इस धरती से!
ले जा यह जलन बुझाऊँ किस सिंधु में?
सौंप दूँ किसे मैं क्रूर चेतना हृदय की!

1943