nupur bandhe charan

पानी बरस कर खुल गया
जैसे हृदय ही धुल गया

ज्यों ही उठी काली घटा
मन का अँधेरा-सा कटा
बिजली चमकने लग गयी
सोयी उमंगें जग गयीं
आये झकोरे वायु के
लघु विटप कच्ची आयु के
डर, थरथराते-से झुके
फिर वायु झोंके भी रुके
बूदें बड़ी जामुन-सदृश
टप-टप गिरी भू पर विहँस
कुछ खेत पर, खलिहान पर
कुछ गिरीं सूखे धान पर
कुछ सिंधु पर, कुछ सीप में
कुछ शैल पर, कुछ द्वीप में
कुछ गोद में वन के गिरीं
कुछ ढूँढ़ती आश्रय फिरीं
तालाब में मेंढक बनीं
बन चील चिड़ियों पर तनीं
गिरकर कली के वक्ष पर
पल में गयीं शतश: बिखर
कुछ ओंठ पर, कुछ गात पर
कुछ डाल पर, कुछ पात पर
चुंबन-सदृश लहरा गयीं
आमूल तन सिहरा गयीं

सब दृश्य हो मंजुल गया
पानी बरसकर खुल गया

जागे सरित सोये हुए
गिरि-प्रांत में खोये हुए
मृगशावकों-से दौड़कर
विद्युत-विशिख से होड़ कर
उठकर कमल-से कीच से
निकले विटप के बीच से
पगडंडियों को पार कर
पहुँचे नदी के द्वार पर
नदियाँ चलीं झुक-झूमतीं
तट को लिपटकर चूमतीं
नख-शिख जवानी से मढ़ी
तरु-फुनगियों तक जा चढ़ीं
धारा कभी रुकती नहीं
चट्टान भी झुकती नहीं
प्रण किन्तु दोनों के चुके
नदियाँ रुकी, पर्वत झुके

बल आँसुओं में ढुल गया
पानी बरसकर खुल गया

कोसों सजल धनक्यारियाँ
डूबी पथों की आरियाँ
धोये, हरे, चिकने, नये
पत्ते चमकने लग गये
दूबें लहर-हिंडोल-सी
ज्यों कंचुकी भू ने कसी
उठ-उठ गिरी हर साँस में
बल खा गयीं भुजपाश में
लंबी, लचीली डालियाँ
जैसे हवा की सालियाँ
सलवार धानी रंग का
यौवन छलकता अंग का
पहली मिलन की रात की
बहनें चपल बरसात की
वह खिलखिलायी, वह झुकी
वह गोद में सहमी, रुकी
वह जो अभी बच्ची रही
कोंपल लिये, कच्ची रही
कुछ दूर ही रहकर खड़ी
सकुची, बिछा आँखें बड़ी
तन में फुरहरी आ गई
गदरा गयी, छितरा गयी

यौवन कनक-सा तुल गया
पानी बरसकर खुल गया

‘पी-पी’ पपीहे ने कहा
“बादल कहाँ बिछुड़ा रहा!
किस सिंधु के किस कूल पर!
किन बिजलियों के फूल पर!
गिरि-गह्वरों के कोट में!
हिमघाटियों की ओट में!
कज्जल निशा-संदर्भ में।
निर्ज्योति सागर-गर्भ में!
सुनसान रेगिस्तान में!
या पास के खलिहान में!
जनमा कहाँ? बिकसा कहाँ?
लायी ललक किसकी यहाँ!!
‘पी-पी’ पपीहा बोलता!
अंतर जलद का डोलता
“मैं पी नहीं तो’ कौन है!
धरती-गगन सब मौन हैं
मैं जलधि से उठ आ गया
जलते जगत पर छा गया
चपला वधू की बाँह में
नभ-तारकों की छाँह में
सुख मिल सका आकाश में!
मेरी प्रिया तो घास में
अनिमिष, अधीर, उदासिनी
एकांत वन-पथ-वासिनी
सर्वांग हरियाली मढ़ी
युग नयन सावन को झड़ी
शत-बाहु उसके पास मैं
सोऊँ सलोनी साँस में

मन मोम जैसा घुल गया
पानी बरसकर खुल गया

पहिरोपना करने चली
यह कौन पंकज की कली
गोरी, गुलाबी पिंडलियाँ
जल में धँसी ज्यों बिजलियाँ
तन पर सुपुष्ट उभार है
उड़ता वसन हर बार है
झुककर खड़ी बौछार में
तिरछी लता-सी धार में
दुहरी हुई क्‍या सोच है!
कटि में कमल-सा लोच है
वह टूटनेवाली नहीं
नागिन, भले काली नहीं
स्वर बीण की झंकार-सा
स्वर सिसकियों के तार-सा
स्वर गूँजता हर ओर है
जैसे पपीहा-मोर है
अंचल हवा में उड़ रहा
बंधन हृदय का तुड़ रहा
पहले गिरे कुछ स्वेद-कण
फिर अश्रु बन बरसे नयन
तन भीगता, मन भीगता
चुपचाप यौवन भीगता
रोते पहर क्‍यों रात के!
ऐसी भरी बरसात के!
साजन गये किस ओर हैं!
बादल मचाते शोर हैं

काजल नयन का धुल गया
पानी बरसकर खुल गया

मैं घूमने निकला अभी
है रंग भी बदले सभी
रति-श्रांत बललरियाँ खड़ी
अलसित, हसित, आँखें बड़ी
बिखरी लटें, बाँहें शिथिल
उच्छवास सौरभ-मय अनिल
फिरती फुदकती टिटहरी
मैना, मयूरी, गिलहरी
डुट-डुट कहीं, टी-टी कहीं
पी-हू कहीं, पी-पी कहीं
ढोलक कहीं, बाजे कहीं
झूले कहीं, झाँझें कहीं
कजरी कहीं, दंगल कहीं
बिजली कहीं, बादल कहीं
सब दूसरा ही दृश्य है
खुलता नवीन रहस्य है
उन्नत उरोजो-से खड़े
गिरिश्रृंग हरियालीमढ़े
झरने कि मौक्तिक-हार हैं
अलकें गगन की धार हैं
घन-पुतलियों पर सतरँगा
नव इंद्रधनु-सा जो टँगा

भ्रू-चाप हो वर्तुल गया
पानी बरसकर खुल गया