nupur bandhe charan
प्रेम की इस मोहक नगरी में
चढ़ा एक दिन आया था मैं अपनी स्वर्ण तरी में
नखत म्लान थे खिँची सुनहरी आभा थी लहरी में
चिह्न उषा के प्रकट हो रहे थे कुछ विभावरी में
सम्मुख तट पर जल भरती थी झुकी हुई गगरी में—
बाला एक, न था कुछ अंतर उसमें और परी में
हाथ पकड़ वह मुझे ले गयी, नभ की बराबरी में–
उठते पुर-भवनों से होती गिरि की शून्य दरी में
सुनता वहाँ प्रणय-गायन जब अलसित दोपहरी में
जागा मैं, थे मधुप उड़ रहे घाटी हरी-हरी में
कलियाँ मृत सोयी थीं भू पर, ज्यों निद्रा गहरी में
पर वह कहाँ, बँधा था मैं जिसकी सर्पिल कवरी में।
प्रेम की इस मोहक नगरी में
चढ़ा एक दिन आया था मैं अपनी स्वर्ण तरी में