nupur bandhe charan
मृगतृष्णा
सम्मुख रवि दिवसावशेष का
मैं यात्री-सा हिम-प्रदेश का
चला देखता दृष्य ‘देश’ का
हर्ष – हुलास – भरा
ऊँच-नीच से गिरती-चढ़ती
पगडंडी ज्यों आगे बढ़ती
और अधिक आती थी कढ़ती
भूरी स्वच्छ धरा
किरण-खचित थी अरुण रेणुका
पश्चिम नभ था कुंज वेणु का
लौट रहा था यूथ धेनु का
हृष्ट-पुष्ट मरु की
पुर की सीमा छूट चुकी थी
अभी न मेरी प्रगति रुकी थी
पथ रोके अब डाल झुकी थी
एक नीम तरु की
संध्या थी कढ़ रही रेत से
दीख पड़े तरु खड़े प्रेत-से
मैं मुड़ता पर एक खेत से
आगे बढ़ आया
कर के पार एक लघु घाटी
पहुँचा जहाँ खड़ी थी जाँटी?
देखी रेणु-अचल-परिपाटी
ऊपर चढ़ आया
वहाँ देखने लगा तनिक रुक
यत्र-तत्र उद्धत पद-से शुक
गद्य-पुस्तिका-सा था सम्मुख
मरुथल खुला हुआ
चित्रित शिविर-सदृश रण-स्थल में
टीले थे दानव-से बल में
हँसता था जिनके अंचल में
मग ज्यों पग न छुआ
कूओं पर जल भरते जाते
कृषक उच्च स्वर में थे गाते
नभ-पथ से थे उड़ते आते
पंछी दूरी से
एक मोर पाँखें फैलाकर
नाच रहा था ताल-ताल पर
सुर के सहित प्रशंसित होकर
मुग्ध मयूरी से
जाने दूर कहाँ से चलकर
एक थका कारवाँ डगर पर
चला आ रहा था मृदु-मंथर
लाद मिरच-लकड़ी
कहीं सजी थी सिंचित खेती
ऊसर भी जो थी वर देती
खूब सँजोये थी वह रेती
तरबूजे, ककड़ी
घनी चली आती थी तम-निशि
टीले लगते थे तप-रत ऋषि
मैंने अब वापस घर की दिशि
मुड़ने की ठानी
मरु ने थी जो अंकित कर ली
चरण-चिह्र-रेखा निज धर ली
और पकड़ फिर वही डगर ली
जानी – पहिचानी
दिखी दूर पर सहसा आँधी
मैंने कसकर हिम्मत बाँधी
अभी दूर आया था आधी
घिरा धूलि-धर से
ढब से ढले ढूह वे ढालू
कँपे वृहत् सित रूसी भालू
लगी रोम-सी उड़ने बालू
उनके ऊपर से
आये झंझा-झटके भूरे
दोनों नयन रेत से पूरे
मैं पाकर पंथचिन्ह अधूरे
मन में घबराया
छिपे दिगंत अमाँ में जैसे
इधर-उधर घन उड़े सभय-से
कहा हृदय ने ‘मिटती ऐसे
बादल की छाया’
इसी समय आकुल-सी मन में
एक कृषक-बाला निर्जन में
दीख पड़ी विद्युत-सी घन में
लहराती फिरती
एकाकी झंझा में चंचल
वह मरु में जैसे थी शाद्वल
इंदु-कला-सी जब वह श्यामल
मेघों से घिरती
बिखरी जाती थी उसकी लट
उड़ा जा रहा अरुणिम पट
चूर्ण पड़ा था एक ओर घट
हाथों से छुटकर
छुटकर साथी-सहेलियों से
और गाँव की नवेलियों से
मौन खड़ी थी हथेलियों से
मुख को संपुट कर
जलमय एक खंड में घट के
बिंबित अरुण छोर थे पट के
दूर बहुत थी वह पनघट के–
निकट न था घर भी
मृग मरीचिका देखे जैसे
शीश उठाकर मुझको वैसे
देखा उसने लज्जा-भय से
बोली निःस्वर भी
कुमारिका का अवसर पहला
दिये अपरिचित ने तन सहला
जब मुख पर आत्मिक आग्रह ला
नख-शिख तक सिहरी
विस्मित दृष्टि रही भू-लुंठित
भय से, लज्जा से अवगुंठित
अपनी ही सीमा में कुंठित
मूक बनी, ठहरी
भग्न कलश में झलकी छाया
पास खड़ी दो प्यासी काया
नयनों में नव मधु लहराया
आकुल यौवन का
मिले नयन बज उठी बाँसुरी
स्तर-स्तर स्वप्निल खुली पाँखुरी
जागा उर में भाव माधुरी
कोमल स्पंदन का
झंझा-झड़ थी तीव्र, भयानक
सूना स्थल, संध्या-तम भक-भक
मेरी ओर देखती तिर्यक्
वह हँसकर बोली
‘आज खड़े जो हो सकुचाते
मेरे सपनों में मदमाते
जान गयी, तुम ही थे आते
फैलाये झोली
कहाँ अश्व, असि? कहीं युद्ध हो
वीर-वेश के तुम विरुद्ध हो
नहीं प्रेम में तो अशुद्ध हो
ओ मन के राजा।
चुंबन एक प्रतीति के लिये
फिर पूरब दिशि चलें मुँह किये
मुझे ब्याह में नहीं चाहिये
कुछ बाजा-गाजा
एक दिवस आयेगी आँधी
बचपन से थी आशा बाँधी
मुझको ग्राम-डगर से आधी
हर ले जाओगे
वाम नेत्र रह-रह फड़का था
विद्युतमय बादल कड़का था
आज हृदय मेरा धड़का था
साजन! आओगे’
गूँजी निशि के नूपुर की मणि
चमक उठी नभ की हीरक-खनि
आयी मंदिर की घंटा-ध्वनि
दूर-स्थित पुर से
एक मोर बोला शाखों पर
शशि त्रयोदशी का मृदु मंथर
हँसने लगा वक्र-मुख उठकर
टीलों के उर से
सुरमित श्वास-स्पर्श अधरों पर
भुज-मृणाल गुंफन को तत्पर
देखी, मैंने वह छवि सुंदर
बेसुध आँखों से
लहराई उर में मधु-लहरी
जागी प्रीति-भावना गहरी
वह छवि मानस-पट पर ठहरी
छँटकर लाखों से
चमक रही थी रेणु रजत-सी
टीलों की माला पर्वत-सी
ज्योत्स्ना थी मृदु क्रीड़ा-रत-सी
चिकनी बालू पर
बिल से निकल-निकलकर पुलकित
खेल रहे थे अहि-शिशु अगणित
रज-कण को मणि समझ प्रहर्षित
रेती ढालू पर
पल-पल बढ़ते थे सन्नाटे
चारों ओर घने थे काँटे
हँसती थी कूओं की लाटें
मढ़ी सुवर्णों से
लघु षट्पदी कीट मृदु, मंथर
रेंग रहे थे चुप, बालू पर
बनती थीं बेलें अति सुंदर
जिनके चरणों से
मैंने वह प्रमत्त मुख देखा
पढ़ा भावनाओं का लेखा
कहा सिहरते गृह की रेखा
तुम क्यों तज आयी
डूब चुका है सूरज का रथ
जननी देख रही होगी पथ
ढूँढ़ रहे होंगे इति से अथ
कूएँ पर भाई
जलमय दोनों पलके मीचीं
वाणी कढ़ी अश्रु से सींची
गुरु कर्तव्य, भावना नीची
जग ने है माना
घर जाओ, सपनों की रानी!
मैं पंथी, नगरी अनजानी
प्रेम सदा दुःखांत कहानी,
भूल न यह जाना
1941
१. प्रवासी राजस्थानी राजस्थान को देश कहते हैं।
2. राजस्थान का एक काँटेदार वृक्ष