nupur bandhe charan
इस नीली गिरि-घाटी के उस पार,
क्या कोई छवि-सागर है लहराता
जहाँ, प्रात, विहगों का यूथ अपार,
नन्हें पर फैलाये उड़-उड़ जाता?
श्याम निशा में कभी सिंह-गर्जन-सा
दूरी से आता कुछ शब्द गहन-सा
सुनता हूँ मैं भी तो हतचेतन-सा
ज्यों कोई असफल प्रेमी सिर मार
शिला-खंड पर हाहाकार मचाता
कहते सब, उस सागर में मोती हैं
तट पर परियाँ, पुरुषों हित रोती हैं
दैत्यों-ली जल-नागिनियाँ होती है,
जो मनुजों पर करतीं दंत-प्रहार,
पास कुतूहल से जो खिंचकर आता
संध्या, उषा सलोनी दोनों बहनें
आती पहन वहीं से मणिमय गहने
दिनकर जाता वहीं रात भर रहने
सिर से जलता अग्नि-किरीट उतार,
निशा-वधू-अंगों पर दृष्टि गड़ाता
इस नीली गिरि-घाटी के उस पार
क्या कोई छवि-सागर है लहराता!