ret par chamakti maniyan

हे कविता-रवि!
चाहे जितनी सुंदर लगती थी तेरी छवि,
प्रभात के धुँधलके में यही सोचता था
‘कभी मैं तुझसे भी आगे निकल जाऊँगा।’
किंतु अपराह्न में,
जब मेरा अंग-अंग थककर चूर है,
लगता है,
तू अब भी मुझसे पहले जितनी ही दूर है,