roop ki dhoop

उमर खय्याम

1
द्वार पर लुब्ध खड़ी भीड़ तृषावंतों की
लग रही टेर सतत, “पात्र भरो, ‘पट खोलो!
‘स्वल्प अवकाश हमें आज यहाँ टिकने का
कल पुनः लौट सकेंगे न इसी पथ से हो

2
‘नव सुरा आज, तृषा किंतु पुरानी है यह
जब न खैय्याम, न ईसा, न हुए मूसा ही
यह सुरा-पात्र इसी भाँति सतत नर्तित था
भूमि यह व्योम यही साँझ यही ऊषा थी

3
‘श्रेय या प्रेय! यही द्वंद्व सनातन मन का
हारता धर्म जहाँ काव्य जयी होता है
बुद्धि उपदेश हमें लाख दिया करती हो
जो हृदय चाह रहा कितु वही होता है’

4
उस नये विश्व, नयी प्रीति-अतिथिशाला में
एक दिन एक पथिक भ्रांत, भ्रमित आया था
नेत्र में प्रेमभरें स्वप्न लहरते उसके
प्राण के बीच अगम सिंधु उठा लाया था

5
झूमता पात्र कहीं तान सुराही भरती
मत्त मधुपायिनियाँ पैजनी बजाती थीं
क्रूर, भीमांग, भयानक, प्रमत्त स्वामी की
भौंह से काँप, शिथिल-गात, न उठ पाती थीं

6
प्राण उसके न समझ पायें जिसे, वर था वह
ओंठ उसके न गुनगुनायें जिसे, स्वर था वह
लाज से झुकी-झुकी, भीत गुलाबी चितवन
रूप की हाट, मधुप-नादभरा घर था वह

7
नील-दृग, एक अबुध, दीन, किशोरी, गोरी
आ गयी पास सुरा-पात्र लिये डरती-सी
रुक गयी साँस जिसे देख पथिक के मन की
प्राण के बीच लगी दामिनी उतरती-सी

8
वृद्ध कुछ दूर खड़ा एक गुनगुनाता था
ओंठ से फेनभरा पात्र लगा लेता-सा
शीघ्र, अति शीघ्र, सुरा शेष हुई जाती यह
बढ़ रहा हाथ तुम्हें दूर किये देता-सा

9
‘द्वार जब तक न जुड़ें, खूब छको जी भरकर
लौटकर, बंधु! तुम्हें कल न यहाँ आना है
आज, बस आज, यही एक तुम्हारे बस में
कल सभी ठाठ यहीं छोड़ चले जाना है

10
‘कल किसे ज्ञात कहाँ रात कटेगी अपनी !
यह सुरा और सुरा-पात्र कहाँ पाओगे।
उर्वशी आप सुधा-पान कराने आयी
यह खिले फूल सदृश गात्र कहाँ पाओगे |

11
‘झिलमिले दीप नयन, स्नेहभरे, सकुचाये
यह सलज दृष्टि, अमृत-वृष्टि हलाहल होगी
यह मधुर साज जिसे काल स्वयं झनकाता
यह भृकुटि-भंग, हँसी वक्र, कहाँ कल होगी !!

12
काँपकर मूँद लिये नेत्र पथिक ने अपने
साँस की गंध गयी साँस सिहर से भरती
चेतना-चंद्र घिरा श्याम अलक-मेघों से
दृष्टि के बीच झुकी दृष्टि मधुप-सी डरती

13
वृद्ध ने भाँप लिया प्रेम हृदय का उनके
झूमता बोल उठा घूँट पुनः लेता-सा
‘शीघ्र, अति शीघ्र पियो, बंधु! सुरा उड़ती है
देखते क्या न, मंरण ओंठ सिये देता-सा!

14
ये अरुण गाल जहाँ, शुष्क उड़ेंगे पाटल
ये मदिर ओंठ जहाँ, ठूँठ शमी का होगा
और ये अंग तरुण आज जहाँ अँगड़ाते
कल वहाँ ढूह किसी भग्न कुटी का होगा

15
‘कौन तुम, अर्थ तुम्हें ज्ञात यहाँ आने का?
कौन वह देश जिसे छोड़ चले आये हो ?
भेज कर कौन तुम्हें पार क्षितिज के हँसता?
कल खुलेंगे कि नहीं नेत्र, समझ पाये हो ?

16
‘एक अनबूझ कथा, एक पहेली हो तुम
मेघ की भाँति उठे, लुप्त हुए पानी-से
आज की रात यहाँ वास, ठिकाना कल का
पूछ देखा न किसी सिद्ध, गुणी, ज्ञानी से!

17
‘शीश षट्शास्त्र लिये, ज्ञान-पिपासाकुल मैं
तत्त्व-जिज्ञासु कभी भ्रांत तुम्हीं जैसा था
दार्शनिक, नीति-निपुण, भेद न किससे पूछा!
सृष्टि का सत्य कहे, एक नहीं ऐसा था

18
“स्वर्ग का लोभ कहीं दूर अजाने कल में
त्याग, तप, कष्ट, कहीं व्यर्थ हनन आत्मा का
लोग उस पार कनक-कोट खड़े करवाते
मोल इस पार कुटी का न किसीने आँका

19
‘एक यह लाल परी शीशमहल में बैठी
सत्य का, बंधु! दिया ज्ञान इसीने मुझको
‘ले नकद, छोड़ यह उधार, समय उड़ता है
मूर्ख! चैतन्य मिला एक घड़ी भर तुझको

20
‘काल का चक्र सतत घूम रहा मस्तक पर
आयु का क्षीण तड़ित-लेख मिटा जाता है
स्वप्न का इन्द्रधनुष-बिम्ब तुहिन-अधरों पर
शून्य में काँप, अभी देख, मिटा जाता है

21
‘सैकड़ों वर्ष फिरे भी न फिरेगा यह क्षण
दिन ढलें लाख, न यह रात पुनः आयेगी
रत्न-सा छुट न कभी हाथ लगेगा यौवन
रूप की लौट न बारात पुनः आयेगी

22
लीलने दिव्य सुधा-बिंदु सदूश जीवन यह
काल का राहु सतत हाथ बढ़ाये, बैठा
दीप यह क्षीण जिसे फूँक बुझा देने को
शुन्य, इतिहीन तिमिर घात लगाये बैठा

23
‘बेच इसको न किसी स्वप्न-भविष्यत्‌ के हाथ
रत्न यह फेंक न दे भ्रांति-भरी बातों में
स्पर्श, रस, रूप, रणित, गंधभरी आयी मैं
रात यह एक तुझे प्राप्त अमित रातों में

24
“ज्ञान की बाँध बड़ी पोट गले गुरुओं के
कूप में डाल उन्हें, और उठा ले प्याला
आज की रात तुझे अंक लगाकर अपने
वे मधुर खेल दिखाऊँ कि बने मतवाला

25
“बात कल की न चला कल न किसीने देखा
रात तो, आह! बड़ी स्निग्ध सुहानी है आज
कान में गूँज रही मुग्ध छमक नूपुर की
प्रात की बात बहुत दूर कहानी है आज

26
“दीप जो आज जले, प्रात सभी को बुझना
पूछता कौन वहाँ -“स्नेह लुटाया क्‍यों था!”
अधजला-सा कि बुझा-सा कि जलन पीता-सा
तू जरा पूछ उसीसे कि जलाया क्‍यों था!

27
“वर्तिका-स्नेह-अनल, जोड़ तनिक देखा भी
झेलता दीप रहा वेग पवन के कैसे!
स्वर्ण-सा वर्ण पड़ा स्याह घड़ी भर में ही
ले अकथ पीर सहे तीर मरण के कैसे!

28
‘और कुछ दर्द भुलाया कि उसे ध्यान आया।
स्नेह का दान रहा दूर, जलन उकसा दी!
तेज कुछ भेज दिये और हवा के झोके!
प्रीति-चंदन न दिया भाल, तपन बरसा दी!”

29
‘हो गये और अरुण वर्ण अधर तरुणी के
बोल, आवेशभरी, ऐंठ, भवन से निकली
लाज से मोड़ चिबुक, स्नेहभरी, सकुचाती
ओंठ के पास पहुँच, आप तड़ित-सी उछली

30
‘प्राण में पैठ गयीं लाल परी की बातें
देवालय छोड़ सुरा-कुंज बसाया मैंने
जोग-जप भूल लिया हाथ कुसुंभी प्याला
श्रेय-नि:श्रेय यही पेय बनाया मैंने

31
‘शाह जमशेद कहाँ तख्त सुलेमानी आज!
लुब्ध महमूद, कनक-छत्र-सहित सोया है
धूल में लीन सिकंदर महान की फौजें
कौन यह मुर्दघटी देख नहीं रोया है!

32
‘हार को जीत बना किंतु अकड़ता हूँ मैं
रो रहा ज्ञान जहाँ, प्रेम खड़ा हँसता है
आज तुम भी न रहो मौन लहर गिनते ही
साँस के पाश नये काल सतत कसता है

33
‘स्वर्ण इतना कि सके तोल हिमालय के श्रृंग
राज्य का भूमि, गगन, दूर ग्रहों तक विस्तार
आप जब तुम न रहे, बंधु ! सभी निष्फल हैं
मृत्यु, बस, मृत्यु, यही एक तुम्हारा अधिकार

34
‘मैं तुम्हें और कहूँ एक बड़े गुर की बात
बात सच है कि इसे लोग छिपाते आये
ज्ञात कुछ भी न हमें भेद मरण-जीवन का
मूढ़ को मूढ़ यहाँ राह दिखाते आये

35
‘और सुन लो कि यही सृष्टि रहेगी चिर-काल
रूप ने नित्य यही रूप सँवारा होगा
कल्प-कल्पांत यही प्रीति-सुरा छलकेगी
एक हम और न यह पात्र हमारा होगा

36
‘चाँद यह, बंधु! तुम्हें कल न यहाँ पायेगा
फूल होंगे, न तुम्हीं एक मिलोगे वन में
आम्र पर बैठ तुम्हें व्यर्थ पुकारेगा पिक
स्पंद होगा न पुन: क्षार हुए यौवन में

37
भाग्य अवकाश हमें, काश! कहीं यह देता
यह जरठ विश्व मिटा विश्व नया रच लेते
क्या न हम रौंद इसे चाक चढ़ी मिट्टी-सा
प्रेम का लोक नया मूर्त यहीं कर देते!

38
‘काल है क्रूर वधिक और विवश भेड़ें हम
रात-दिन ज्वार-उड़द खेत, फिराकर जिन पर
व्यर्थ दो-चार कदम, लुब्ध पुनः कर देता
बाड़ में बंद हमें, कंठ पकड़, गिन-गिनकर

39
‘काल शतरंज बिछी, और सभी मुहरे हम
घर धवल-श्याम दिवा-रात्रि, चला जल्दी में
चाल दस-पाँच हमें, भाग्य पुनः रख देता
काल की जीर्ण उसी धूलसनी पेटी में

40
‘रात के पार कहीं और सवेरा भी है
कौन यह भेद कहे! दूर क्षितिज-सीमा की
उस अगम अंध गली से न फिरा है कोई
कल्पना-मूर्ति भले शास्त्रविदों ने आँकी

41
‘इस सजल कुंज तले रैनबसेरा कर लो
गा रही बैठ जहाँ पात्र भरे मधुबाला
पास प्रिय काव्य, झुके पेड़ फलों के सिर पर
स्वर्ग निःशेष यही, और न आनेवाला

42
‘बात सच है कि मुझे लोग बुरा कहते हैं
क्योंकि मैंने न कभी भाव छिपाया मन का
मुँह लिया मोड़ सभी धर्म-ध्वजाधीशों से
बन गया दास इसी मानवती दुलहन का

43
‘चाँदनी फैल गयी, नेत्र झुके साकी के
चाँद ने काँप, किया मुग्ध इशारा मुझको
मधुमयी आग तरल दौड़ गयी नस-नस में
इस परी का न हुआ त्याग गवारा मुझको

44
‘और अब साध यही, सिद्धि यही, साधन भी
प्राण का मूल यही, मंत्र यही जीवन का
प्रेरणा-स्नोत यही सोम-सुता मदिराक्षी
बुद्धि से छीन इसे सूत्र दिया तन-मन का

45
‘खींच ले जाय जिधर यह, न रुकूँगा पल भर
मृत्यु के पार इसे साथ लिये जाऊँगा
शुभ्र अंगूरलता फूट चलेगी रज से
मैं जहाँ शेष बची राख दिये जाऊँगा

46
आ गया भूल कभी जो समाधि पर मेरी
दार्शनिक ज्ञान भुला, मत्त स्वयं झूमेगा
चूम पाषाण-पटी, अर्घ्य सुरा का देकर
हाथ यह काव्य लिये स्नेह-विकल घूमेगा

47
जब प्रिया-संग खड़े चाँद नया देखोगे
मैं तुम्हें, बंधु! कहीं भी न दिखाई दूँगा
कुछ रचे छंद यही मंत्र निखिल जीवन के
दे यही भेंट तुम्हें आज विदा ले लूँगा

48
‘काँपते गात, शिथिल अंग, हृदय में सिहरन
आँख में घूम रहा चाँद गुलाबी है आज
पात्र शत-कोटि नखत, रात पिलानेवाली
प्रीति-रस-मत्त निखिल विश्व शराबी है आज

49
‘सिंधु हिल्लोलभरा पात्र सुरा का जिसको
चंद्रिका-बाहु बढ़ा व्योम चढ़ा लेता है
सोम-रस-पान किये, मत्त हुआ, बेसुध-सा
नेत्र में नित्य नया चित्र मढ़ा लेता है

50
‘प्राण में काम, क्षुधा, नींद, तृषा, चिता, स्मृति
अंग में रूप वही, राग वही अधरों का
सृष्टि-मकरंद वही, छंद चराचर का मूल
चिर-सुधा-सार वही, भोग सकल अमरों का

51
‘मैं गया एक दिवस, बंधु! कुम्हारों के गाँव
चल रहा चाक जहाँ मूर्ति अमित गढ़ता था
दंभमय कुंभ, विविध साज सुरापात्रों के
प्रतिनिमिष पिंड नये रूप लिये बढ़ता था

52
‘कुछ चपल पात्र सभा जोड़ बड़ी पात्रों की
बोलते थे कि हमें आज निपट लेना है
क्यों बना व्यर्थ हमें तोड़ दिया जाता है
क्यों मिला रूप जिसे क्षार बना देना है

53
‘ढीठ शिशु भी न कभी रोष किया करता यों
तोड़ता वह न कभी आप खिलौने अपने
हाय ! यह गात्र, भरी ज्योति स्वयं की जिसमें
तोड़ने थे न उसे पात्र सलोने अपने

54
‘पात्र बढ़ एक तभी बोल उठा बल खाकर
“मिट रहा कौन यहाँ कौन मिटानेवाला!
एक दिन रौंद चलेंगे कुम्हार को हम भी
कर सकेगी न हमें क्षार जगत की ज्वाला

55
‘हम अमृत-पुत्र नया रूप बदलते भर हैं
एक चैतन्य वही नित्य नया ढलता है
मृत्तिका हम न, जिसे नाच नचाये मृत्कार
शक्ति वह चूम जिसे चाक स्वयं चलता है ‘!

56
‘बात पूरी न हुई थी कि तभी ग्राहक एक
आ गया, और उसी ज्ञान-गहन प्याले को
ले गया शीघ्र उठा, बंधु! सुरालय की ओर
मैं अधिक सुन न सका गूढ़ कथनवाले को

57
‘पात्र तब बोल उठा एक, ”वृथा रज का दंभ
गात का रंग पृथक्‌ देख यहाँ लड़ना क्या!
साज-श्रृंगार करो, नाम लगा लो कितने
दो घड़ी हेतु रचा स्वाँग, उलझ पड़ना क्या!

58
‘रक्त का रंग वही, अंग वही मृण्मयता
प्राण का भाव वहीं, वृत्ति वही सुख-दुख की
चेतना-स्रोत वही, साज वही अंतर के
मानवी ऐक्य, सकी तोड़ विविधता मुख की !”

59
‘बीच में पात्र तभी एक तमककर बोला,
“प्राण संकल्पभरे, हम न यहाँ हैं निरुपाय
मृत्तिका देह भले हो, कुम्हार हैं हम ही
जो करें भाव वही रूप सुहाना बन जाय’

60
“दूसरा पात्र तभी भीत सहमता आया–
“ज्ञान है व्यर्थ यहाँ, सिद्धि विफल साधन भी
सत्य बस यह कि हमें टूट बिखर जाना है
कुछ कहो, मृत्यु तुम्हें ढील न देगी क्षण भी

61
‘धन बहुत जोड़, बड़े सौध चिनाये तो क्या!
मान, धन, शक्ति, प्रिया रूपबती, मृगनयनी
प्राप्त हर वस्तु, जिसे विश्व समझता सौभाग्य
अंत तो किंतु वही सेज मिली चिर-शयनी’

62
‘तीसरा पात्र तभी हाथ उठाकर बोला,
“धर्म ही एक चिता पार पहुँच पाता है
आत्म-बलिदान यही मंत्र सफल जीवन का
विश्व-सुख हेतु हमें क्षार किया जाता है!”

63
‘और यह क्रम न अभी शेष हुआ था, तब तक
मधुमयी एक सुरा-भांड लिये आ पहुँची
सब बढ़े पात्र उधर, शुष्क-अधर, आकुल-मन
मर्त्य की देख अमर प्यास सुराही सकुची

64
‘और तब ज्ञात हुआ मोल सुरा का मुझको
सृष्टि का मूल यही एक समझ में आया
मुक्त, निर्द्वन्द्व उसी काल हुआ मन मेरा
हार कर लौट गया ज्ञान विफल, शरमाया

65
‘अब तुम्हें और अधिक ज्ञान सिखाऊँ तो क्‍या!
लो प्रिया-नेत्र उधर व्यग्र झुके जाते हैं
चाँदनी का न कहीं गीत अधूरा रह जाय
वक्ष के स्पंद तृषावंत रुके जाते हैं

66
‘मैं रहूँगा न जहाँ कौन सुरालय होगा!
किस प्रिया का न मुझे रूप झलक जायेगा!
कौन यौवन कि जहाँ प्यास न होगी मेरी!
अंश मेरा कि भरा पात्र छलक जायेगा’

67
वृद्ध के काँप उठें पाँव, गला भर आया
और दो घूँट सुरा घूँट तृषित रद-पुट में
खींचकर जोड़ दिये हाथ तरुण-तरुणी के
और फिर आप हुआ लीन तिमिर-संपुट में

1966