sab kuchh krishnarpanam

बहुत दिन बीते गीत सुनाते
तुम भी तो अपने मन की कुछ व्यथा हमें बतलाते

कैसी यह रहस्यमय स्मिति है दृगकोरों में सिमटी ?
सहज भंगिमा यह कि प्रेम की लौ लज्जा में लिपटी ?

कैसे ये अनकहे शब्द हैं ओंठों पर मँडराते?

कभी जान पाता मैं भी तो, क्या तुमको है भाता!
कोरी आत्मवंचना है या मैं भी कुछ कह जाता!

पत्थर से टकराकर भी तो शब्द कभी फिर आते!

बहुत दिन बीते गीत सुनाते
तुम भी तो अपने मन की कुछ व्यथा हमें बतलाते

1987