sab kuchh krishnarpanam

हर संध्या श्रृंगार किये मैं देखूँ खड़ी खड़ी
जाने कब तुमसे मिलने की आये मधुर घड़ी!

कब छाया पथ से सकुचाते
मिलनोत्सुक बाँहें फैलाते
आ जाओ तुम मृदु मुस्काते
देखूँ कब मैं रूप तुम्हारा पट की ओर अड़ी!

पल में हर तन-मन सर्वस लो
मुझको निज बाँहों में कस लो
मैं झुकती जाऊँ बेबस हो
नयनों से सावन भादो की लगती रहे झड़ी

हर संध्या श्रृंगार किये मैं देखूँ खड़ी खड़ी
जाने कब तुमसे मिलने की आये मधुर घड़ी!