sau gulab khile

कभी सर झुकाके चले गये, कभी मुँह फिराके चले गये
मेरा साथ कोई न दे सका, सभी आये, आके चले गये

मुझे डूबने से उबार लें, कभी यह तो उनसे न हो सका
मेरी भावना के कगार पर, वे लहर उठाके चले गये

नहीं एक ऐसे तुम्हीं यहाँ, जिसे प्यार मिल न सका कभी
कई लोग पहले भी आये थे, यही चोट खाके चले गये

जो गले में डोर-सी थी बँधी, उसे तोड़ तो न सका कोई
कई छटपटाके चले गये, कई मुस्कुराके चले गये

मेरी ज़िंदगी का निचोड़ था, कोई ऐसी-वैसी कथा न थी
वही ज़िंदगी जिसे प्यार से कभी तुम सजाके चले गये

जो ह्रदय को प्यार का दुख मिला, तो अधर को गीत की बाँसुरी
उसी बाँसुरी के सुरों पे हम, कोई धुन सजाके चले गये

वही पँखुरियाँ, वही बाँकपन, वही रंग-रूप की शोख़ियाँ
वो गुलाब और ही था मगर, जिसे तुम खिलाके चले गये

उसे अपने मन के ग़रूर से, न सुना किसीने तो क्या हुआ !
वो ग़ज़ल किसीसे भी कम न थी, जिसे हम सुनाके चले गये