sau gulab khile

जो जीवन में दुख की घटा बन गयी है
वही काव्य में प्रेरणा बन गयी है

शुरू में तो दो-चार थे सुननेवाले
मगर बढ़ते-बढ़ते सभा बन गयी है

नज़र खोयी-खोयी, क़दम लड़खड़ाये
तुम्हारी भी यह क्या दशा बन गयी है !

कहाँ मीर-ग़ालिब की ग़ज़लें, कहाँ मैं !
बनाने से थोड़ी हवा बन गयी है

गुलाब ! अब पँखुरियों की रंगत कहाँ वह
भले रूह तुमसे सिवा बन गयी है !