seepi rachit ret

मेरे गीत और प्रकृति

मेरे गीतों में क्‍यों आता नहीं प्रकृति का वह जीवन
जो छलका पड़ता समीर से कँपी कोंपलों के दल से,
मंजरियों से, रंग-बिरंगे फूलों से, तरु से छन-छन
दूबों पर चूती रुपहली धूप से, लतिका अंचल से,

भरी पहाड़ी नदियों से, तट से बँध चुके उदधि-जल से,
फूले हुए बादलों से, रिमझिम बूँदों से धनुष-समान
झुकी डालियों से, मधु ले भागती शैल के अंचल से
मधुऋतु में तितली के पर से, खग-रव से प्रति साँझ, विहान ?

चींटी की काजल-रेखा जो रेंग रही घंटों से मूक
गीली हरी दूब पर, मुख में लिये चूर्ण उजले पत्ते,
मेरी रेखा से सजीव है, वह मक्खी जो मैंने फूँक
अभी उड़ायी, शब्दों से हैं अधिक सरस उसके छत्ते।

मूर्ख! न समझा भेद, प्रकृति कविता है कवियों के कवि की,
जग की सर्वश्रेष्ठ कविता भी अनुकृति भर है जिस छवि की।

1941