seepi rachit ret

उनकी एक प्रशंसात्मक स्थिति

जैसे पावस ऋतु की जल से परिपूरित गंगा-धारा
प्रतिपल आकुल, स्वप्निल, बहती तममय सागर की दिशि में,
मेरे निखिल विचारों का हिम-गठित प्रवाह-पुंज सारा
बहता वैसे प्रिय-मुख-शशि की ओर विरह की दुख-निशि में ।

संध्या के रवि-सी लेती है मेरी कवि कल्पना विराम
पहुँच जहाँ, वह तो सुख-शीतल छाया उनके अंचल की,
जिसकी मृदुता का अनुभव मैं करता हूँ मन में प्रतियाम
वह मुख-छवि उनकी है जिस पर झलके स्मिति-रेखा हलकी।

मेरी वाणी में, कर्मों, संकल्पों में होता है व्यक्त
मधुर उन्हींका प्रेमभरा व्यक्तित्व और वह सुंदरता
जो निष्प्रभ कर देती अपने सम्मुख तरुण किरण-आरक्त
पूनों के शशि को जब वह आकाश-मंच पर पग धरता।

मेरी कविता, कार्य-कुशलता, उच्च भावनाओं का मूल्य,
उनकी एक प्रशंसात्मक स्मिति, उसके बिना व्यर्थ के तुल्य।

1941