usar ka phool

कितने दिन के बाद तुम्हें देखा मैंने सुकुमारी!

कितने दिन के बाद तुम्हें देखा मैंने, सुकुमारी!
कितने दिन पर सुनी आज यह मीठी हँसी तुम्हारी!

भोहों का नर्तन बिजली-सा, लज्जारुण कपोल का रंग
दीपक-से दृग में कौतूहल, हर्ष और उन्माद-तरंग
किंतु दूसरे ही क्षण छाया तम पलकों पर, सिहरे अंग
उदासीनता में फिर सहसा कँपकर डूब गये भ्रू-भंग
मैंने यह सब देखा
पढ़ी भाग्य की रेखा
जाना मैंने, हाय ! उसी क्षण
संसृति का कठोर परिवर्तन
गहन निराशा बीच समायी पुनर्मिलन की मधुर उमंग

धधक उठी चेतना, हृदय पर चलती थी ज्यों आरी
हुई परायी वही कभी जो प्राणों से थी प्यारी!

याद आ गयी मुझे तुम्हारी स्नेहभरी पिछली बातें
लाजभरी मीठी चितवन से चोरी-चोरी की घातें
कमरे की लंबी दोपहरी, छत की रिमझिम बरसातें
गीली अलकें देख प्रात जब कहता मैं—‘सद्य:स्नाते !’
‘धन्य नये विद्यापति।’
हँसती तुम छायाकृति
माँग सँवार रही दर्पण में
कहती–‘ सोच रहे क्या मन में’
उर के कोमल भाव ठिठकते अधरों पर आते-आते

सम्मुख हो मुख पर फिर झुकती–‘ क्यों यह चुप्पी धारी
तुम मेरी वीणा हो, कविवर! मैं झंकार तुम्हारी’

अब भी मेरे लिए तुम्हारा हृदय मचलता, रानी!
अब भी आता याद तुम्हें मैं स्वप्न जगत का प्राणी!
खिलखिल हँसी, नग्न बाँहें, नत चितवन, आनाकानी !
दुहरा लेती हो अब भी वह भूली हुई कहानी!
अब भी श्याम निशा में
उठकर शून्य दिशा में
मुझे पुकारा करती हो तुम
प्रिय कौ शय्यावर्ती हो तुम
आलिंगन में आते ही हो जाती पानी-पानी

मांसलता. से चिढ़ का अभिनय करती रही कुआँरी
अब भी प्रेम-विलास न रुचते तुमको, ओ सुकुमारी!

दिखती भी अब नहीं कभी जो दृग की हीरकनी थी
तिल भर भी अधिकार न उस पर जो मेरी अपनी थी!
अन्य किसी हित ले बाँहें, ग्रीवा वह चिबुक बनी थी!
खेल रही मुझसे तुम तकती जिसकी आगमनी थी!
मेरी सकल कमाई
पल में हुई परायी
उठकर प्रिय के अंक लगी तुम
पल में मेरी दीन-खगी तुम
धधक रही यंत्रणा-क्षुब्ध मेरे उर की धमनी थी।

प्रिये। विवश, लज्जित थी तुम भी छोड़ प्रणय की क्यारी।
या यौवन-लहरों पर तिरने की थी वह तैयारी!
कितने दिन के बाद तुम्हें देखा मैंने, सुकुमारी!

1948