usha
तुम प्रेम न इतने बनो क्रूर
साँसों में साँस बने फिरते, अंतर से रहते दूर-दूर
स्मिति मे शीतल उज्ज्वलता है
पलकों पर सपना छलता है
कैसी निष्फल विह्वलता है!
चेतन हिम-कण-सा चूर-चूर
छू लूँ प्रकाश की तरल किरण
संपूर्ण बने स्नेहालिंगन
छवि की छाया हो निरावरण
इंगित पर नाचे मन-मयूर
जाने कैसा यह दंशन है!
मन सब कुछ पाकर निर्धन है
कैसे बतलाऊँ, क्या ब्रण है!
यह चिर-अभाव कब सका पूर!
तुम प्रेम न इतने बनो क्रूर
साँसों में साँस बने फिरते, अंतर से रहते दूर-दूर