ahalya
सहसा खुल गये बंद अंतर के ज्योति-द्वार
‘थे राम मनुज? सच्चिदानंद, पूर्णावतार’
देखा विराट् विभु-रूप सामने महाकार
क्षिति-भार-हरण, भव-शरण-वरण, जन-हृदय-हार
सुर-नर-विधि-हरि-हर-पूजित
हिल्लोलित जलनिधि चरणों पर खाता पछाड़
ब्रह्माण्ड कोटि प्रति रोम, त्रस्त गिरते पहाड़
करतल से जलते त्रिभुवन को दे रहे आड़
देखा कौशिक ने चकित मुँदे लोचन उघाड़
पल-भर वह रूप अकल्पित