anbindhe moti

तन और मन की भूख

तन की भूख वासना कोरी, मन की भूख प्यार का भ्रम
दोनों में है वेग, कठिन दोनों पर ही करना संयम
सूने मरु-प्रदेश में प्रति-पल धूलभरी आँधी जैसे
प्रिय से मधुर मिलन की आकांक्षा तन में उठती वैसे
आगे-पीछे देख न पाता अंध प्रेम उस हलचल में
मोह, लाज, ध्रुव बंध नीति के, टूट-टूट गिरते पल में
मसल अधखिले फूल प्रणाय-उन्मत्त भुजाओं में सुकुमार
प्रिय को उर में भर लेने की जग उठती इच्छा दुर्वार
प्रियवम की साँसों के सौरभ में खोकर अपना व्यक्तित्व
मधुर मिलन में खलता कारण बनी देह का ही अस्तित्व

जगती मन की भूख, सूख जातीं समुद्र की धाराएं
रोक न पातीं मिलने से लोहे की भीषण काराएं
कितना भी हो दूर, विरह में होता मिलने का आभास
जो मिलने पर दूर भागता वह वियोग में आता पास

सुंदर और असुदर देखे मन को होती आँख नहीं
गुण-अवगुण की परख, स्वयं ही जो निर्गुण, कर सका कहीं !
यों ही सहसा देख किसीको मोह और ममता जगती
जन्म-जन्म की चिर-परिचित-सी, प्राणों को वह छवि लगती
फिर क्‍या, उसका ध्यान छोड़कर और दूसरा काम नहीं
प्रिय की स्मृति के बिना एक पल चैन नहीं, आराम नहीं

दो होकर भी भिन्न प्रेम में नहीं देह से होता मन
जिससे मन मिलता तन-मन दोनों उसको होते अर्पण
अंधे की लाठी, समाज का न्याय इसीको कहते है
तन है यहाँ, वहाँ मन वंदी, दोनों व्याकुल रहते है।

1941