anbindhe moti

तुम्हारी हँसी

तुम हँसती हो तो सुंदरता का मूल्य अधिक बढ़ जाता है
नव तप्त स्वर्ण-से आनन पर हीरे का रँग चढ़ जाता है
संध्यारुण मेघों में जैसे चपला की झीनी चमक उठे
मानो पूर्णेदु पयोनिधि से धोकर कलंक कढ़ आता है

अवगुंठन पाटल कलिका का मलयज से ज्यों हिल-हिल पड़ता
जैसे प्रभात के हिमकण पर शरदातप हो झिलमिल पड़ता
अपनी ही तिहरी आभा से उद्भासित हो-होकर अमंद
ज्यो शीशमहल में दीपशिखा, यह मुख वैसे ही खिल पड़ता

अधरों की कोरो से मधु की निर्झणी-सी बह चलती है
खिलखिल की कोमल ध्वनि मन में मनुहारों सदूश मचलती है
पुरवैया के झोंको से ज्यों शत-शत पाटल कलियाँ खिलतीं
ज्यो जलतरंग में सतरंगे दीपों की माला जलती है

कोकिल कलरव-सी हिम-शीतल, ध्वनि सरल, तरल, जलधारा-सी
उर से टकराकर चूर हुई बिछ जाती चंचल पारा-सी
अस्फूट रेखाएँ मिलजुलकर कुछ रूप नया ही रच देतीं
कोमल कपोल-पाली बनती अरुणिम रँग के फव्वारा-सी

झुकती भौहों से छूट पड़ी, घुँघराली अलकों से घिरती
आलोक-निर्झरी-सी चितवन मानस की लहरों पर तिरती
झिलमिल, बरौनियों के पट में, आँखें लंबी हो मुँदती-सी,
किसलय से कानों को छूने, कुंचित कोरक-पथ से फिरतीं

सौंदर्य-सरोवर में मधुमय, वीची का कलरव भरती-सी
संसृति के मूल रहस्यों को पल में प्रतिभाषित करती-सी
चुंबन-कठोर मुक्तावलि-सी अधरों के माणिक-प्याले में
खुल पड़ती प्रात-हिमकणों-सी पाटल-वन-मध्य बिखरती-सी

अधरों की पतली रेखाएं किसलय-सी जब हिल उठती हैं
अंत:-सलिला में तब मानों स्मिति की लहरें खिल उठती हैं
मैं मुग्ध चकोर-सदृश देखा करता हूँ मुस्काती मुख-छवि
यवनिका रूप की एक-एक संमुख से झिलमिल उठती हैं

नत साँसें चूम कँपा देतीं अधरों की कोमल लाली को
जैसे मलयानिल मधु-गुंजित पाटल-कलियों की डाली को
मुस्कानों की मुखरित सुगंध, मंदिर की वीणा-ध्वनि जैसे
प्रतिमा के अधरों पर उठती, गर्वित छवि की रखवाली को

स्मितियों के उमड़े मेघों में, तनु-सिहरन विद्युत-दाम बनी
ज्यों शलभों की बलि-बौछारों में, दीप-शिखा की श्याम अनी
मेघों की नर्तित छाया में जलनिधि की लहरों-सी कंपित
लो, सतरंगी खाड़ी झुककर बन इंद्रधनुष अभिराम तनी

जुगनू के स्वर्णपूल जिससे झड़ते प्रतिपल उस डाली-सी
मलयज के भुजपाशों में अँगडाई लेती हरियाली सी
नवजात प्रणय की पीड़ा-सी भावुक कुमारिका के रर में
आगे बढ़ने में बाधा जो, लज्जा की झिलमिल जाली-सी

तुम मधुर हास्य की लहरों में जब अपना चित्र बनाती हो
आशा-सी जिसके चारों दिशि मृदु स्वप्न-अवलि मँडराती हो
तब नख से शिख तक लहराकर बस एक हँसी की धारा-सी
बन मिटती, स्वर्गगा जैसे विद्युत-द्युति में छिप जाती हो

1942