anbindhe moti

नित नव छवि का हास देखते ही गये
बुझी न मन की प्यास, समुंदर पी गये

अरुण कपोल, अलक पलकों पर झूमी
चकित, गौर हंसी-सी ग्रीवा घूमी
अंचल ने उड़ चंचल छाया चूमी

फिरे देख मृदु हास, मधुप सरसी गये

छलक पड़ी छवि-सुधा सुमन-अंगों से
रँगे दिगंत तड़ित-से भू-भंगों से
नयन सजल लजवंती के भृगों-से

छूते ही निःस्वास मर गये, जी गये

विधु से उतर बढ़ी ऋजु दाँये, बाँएं
युग पय-सरिताओं-सी भुज लतिकाएँ
कंपित वक्ष रहस्य अनंत छिपाए

अधर मौन आ पास, लाज से सी गये

नित नव छवि का हास देखते ही गये
बुझी न मन की प्यास, समुंदर पी गये

1943