anbindhe moti
बरसात है बरसात है
आई हवा मस्तीभरी
झुककर सलज, तिरछी, डरी
महँदीरचे करतल बढ़ा
लिपटी विटप-से वल्लरी
बोली मयूरी चौककर, ‘क्या बात है, कया बात है!
गोरे कपोल धुले हुए
जलजात अर्ध खुले हुए
श्रोणी-पृथुलता से उभर
पड़ते पदांक तुले हुए
नभ से उतर भू पर खड़ी यह कौन सद्य:स्नात है ?
बूँदें नहीं ज्यों गोलियाँ
‘कसमस कसकती चोलियाँ
भीगे वसन तरु से लगी
कंपित कुमारी-टोलियाँ
‘कहतीं गगन से साश्रु-दृग, “लज्जा तुम्हारे हाथ है’
यौवन-जलाशय भर गया
लावण्य और निखर गया
कोई तड़ित-सा कौंधकर
छवि ओस-कण-सी धर गया
डगमग वनाली का हृदय, घन की घुमड़ती पाँत है
दोनों तरफ गिरि-तलहटी
इससे चिँहुक, उससे सटी
भुज-बंधनों में आ गयी
सरिता लिये गति अटपटी
जितनी सलोनी रात है, उतना सलोना गात है
बरसात है, बरसात है