chandan ki kalam shahad mein dubo dubo kar

बंदी
मृत्युदंड सुनते ही काँप उठा अभियुक्त
और दूसरे ही क्षण देखा सबने कि वह
एक ओर गिरा कठघरे में लुढ़ककर।
सनसनी छायी चारों ओर, न्यायाधीश तो
छोड़कर आसन, स्वकक्ष में गये थे, किंतु
दौड़ा द्वारपाल दर्शकों को ठेलता हुआ
आकर उस अभागे के निकट चीखने लगा–
शीघ्र, अति शीघ्र, जलपात्र, द्वार मुक्त करो
दौड़कर कोई सूचना दो न्यायपति को
दूर हट जाओ सभी, स्वच्छ वायु आने दो।’
और तभी सहसा चमक उठी विद्युतू-सी
खींचकर वंदी आग्नेयास्त्र किसी प्रहरी का
हाथ में नचाता उसे आ गया उछलकर
बाहर भवन के मुगेंद्र-सा दहाड़ता।
लोग थे अवाक-से, सिपाही सहमे हुए
दौड़े जब कैदी की दिशा में, वह भागकर
ओझल हवा में हो चुका था वारि-बिंदु-सा

बीत गये कितने दिवस इस घटना को,
प्रतिदिन चित्र को पलायित के छापकर
पत्रों ने किया था उसे व्याप्त घर-घर में;
मुख वह किशोर, गौर खिलते गुलाब-सा
अंकित हुआ था जन-जन के हृदय में
छवि जैसे हो आत्मीय किसी जन की,
रूप अथवा हो किसी प्रिय कलाकार का।
जानता था युवक कि बच न सकेगा वह
न्याय के कराल, क्रूर, दीर्घ, सधे हाथों से
अधिक दिनों तक, कसा ही चला आता है
दिन, प्रतिदिन, नागपाश-सा गले में।
भूख और प्यास से पराजित, विवर्ण, क्षीण,
सोच यह, मरना तो है ही, मरने से पूर्व
क्यों न मिल आऊँ जाकर निज परिवार से!
माता, पिता, बंधु और लाड़ली बहन से!
फिर कहाँ भेंट होंगी टंगकर जब रज्जु से
जाऊँगा अजान उस छायामय नगरी में
जिसकी सीमा से कोई लौटकर न आया है!

और यही सोचता पहुँच गया एक दिन
गहन अँधेरा देख वर्षा में भीगता
जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में निज को छिपाता हुआ
निज गृह में ही चोर जैसा आधी रात को।

चौंक उठी बहन, चकित, देख भाई को
खुशी से पुकार उठी ‘माँ, माँ देख आया है
भैया आज कितने दिनों के बाद घर में!’
जग पड़ी माता, जगे पिता, तीनों बंधु बड़े
जाग उठे एक साथ जैसे किसी स्वप्न से।
दौड़कर पकड़ लिए पुत्र ने चरण माँ के,
दृगों से उमड़ चली आँसुओं की धारा-सी
पीठ पर पाया ज्यों ही स्पर्श पितृ-कर का,
आ गया मुँह को कलेजा ही उछलकर।
देखकर सुत के विवर्ण, कृश आनन को
व्याकुल तड़प उठी माता–‘हाय! भूखा है
कितने दिनों से मेरा लाल।’ क्या खिलाऊँ इसे |
आँचल में दूध भी नहीं है अब मेरे तो।’
दौड़ झट लायी परिधान बहन भाइयों के
बोली–‘पहले ये गीले वस्त्र तो बदल ले,
मेरे प्यारे भैया अब फिर से कदापि तुझे
होने नहीं दूँगी निज नयनों की ओट, मैं।’
कहा भाइयों ने-‘कहीं देख न लिया हो तुझे,
ओ रे भाग्यहीन! तेरे भागने के दिन से ही
आँखें गुप्तचरों की लगी हैं इस गेह पर!”
और तब पिता लड़खड़ाते हुए उठकर
बोले–‘ नागरिक हूँ मैं प्रथम इस देश का
और नागरिक का है पवित्र कर्तव्य यह
देखते ही भागे हुए कैदी को पकड़ना’
और यह कहते हुए, पुत्र के युगल कर
लेकर विवर्ण मुट्टियों में काँपते हुए
निज आँसुओं की अर्गला से उन्हें कस दिया।
चीख उठी माता’ मेरी कोख पर गिरी क्‍यों गाज !
बेटा! क्‍या इसी के लिए पाला तुझे यत्न से!
कोई तो बचाओ मेरे लाड़ले के प्राणों को।’
चीख उठी बहन कि ऐसा नहीं होगा कभी
जाने नहीं दूँगी अब भैया तुझे घर से
चीख उठे भाई ‘कैसी खट-खट है द्वार पर!
लगता है भनक मिली है छिपे दूतों को।’
और तभी निष्ठुर पिता ने शांत भाव से
निष्फल अड़े-से हाथ पत्नी के झिड़ककर
खोल दिये बाहरी किवाड़ झट गेह के।

1979