chandan ki kalam shahad mein dubo dubo kar
मानस–चतुश्शती की सन्निधि में
जब अपनी तुलना करता हूँ मैं कवि तुलसीदास से
लगता है कुछ दूर नहीं हूँ उनके काव्य-विकास से
अलंकार, रस, छंद, भाव, भाषा, चाहे जिस दृष्टि से
रचना उनकी मुझे न लगती बहुत बड़ी निज सृष्टि से
दोहे-गीत-प्रबंध लाँघता, महाकाव्य के केतु तक
मैं भी पग-पग आ पहुँचा हूँ, छवि के स्वर्णिम सेतु तक
कवि-गुरु की यह कीर्ति देखकर आज चार सौ वर्ष पर
आस्था जागती है मुझमें भी निज भावी उत्कर्ष पर
किंतु एक अंतर छोटा-सा जब आता है ध्यान में
तुलसी और स्वयं में पाता हूँ कितना व्यवधान, मैं!
एक बार ही उपालम्भमय सुन पत्नी की झिड़कियाँ
कवि ने सब कुछ छोड़, गेरुआ और कमंडल धर लिया
और यहाँ प्रतिनिमिष बिँधा भी प्रिया-व्यंग्य-विष-बाण में
अस्थि-चरम से लिपटा हूँ मैं, जूँ न रेंगती कान में
1967