chandni
चाँदनी कविता लिखती उन्मन
कापी-सदृश्य खुली गिरि-घाटी
कर में रजत-निर्झरी-साँटी
लिख-लिख मिटा रही है पाटी
दोलित-वक्ष मधुर भावों में रही स्वयं कविता बन
खसित मलय-स्वर्णाचल सिर से
अलकों बीच रहे घन घिर-से
शुरू किया लिखना सब फिर से
मन को भाता नहीं रूप का आधा-आधा वर्णन
मरकत-पत्रों पर मौक्तिक जड़
पुलकित-सी मन-ही-मन पढ़-पढ़
नभ से स्वर्ण-मरंद रहा झड़
अरुण किसलयों-से अधरों में सिहर रहा अलि-गुंजन
चाँदनी कविता लिखती उन्मन
1947