chandni

विरह-विकल विभावरी

फूल ने पँखुरियाँ खोलीं
पपीही ‘पी कहाँ’ बोली
क्षीण मर्मर, कुंज में दीपक-
शिखा-सी वायु डोली
दृग-नलिन में मुँद गयी आशा-अलिनि भर भाँवरी

अधर कंपित, नयन छलछल
करुण हिमदल-सजल अंचल
कर किरण-वीणा सुनहली
अंग तिमिर-विभूति-श्यामल
प्रेम में जोगिन बनी प्रिय की वियोगिन बावरी

नखत-दीप, उतारती-सी
गगन से, प्रिय-आरती-सी
प्रात लौटी कमल-पथ से
अश्रु-मौक्तिक वारती-सी
पूर्व छिड़ने के जगत्‌ की कर्ममय आसावरी
विरह-विकल विभावरी

1939