gandhi bharati
मर सकते वे, जो दे जाते तप्त धरा को नव संदेश
जीवन की शाश्वतता का, जिनकी सुन अमृतमयी वाणी
मृत भी जी उठते, पाते निज लक्ष्य भटकते शत-शत देश
आघातों की आँधी में, जग पड़ते कोटि-कोटि प्राणी!
मर सकते वे, जिनकी साँसें साँस बनी मानवता की
शेष उसीकी सेवा में हो जातीं, जिनका हर सपना
बसा नयन में निखिल विश्व के, द्वेष भूल दानवता भी
जिनके आत्म-त्याग के आगे शीश झुका देती अपना!
जैसे अमर सिंधु, भूधर, रवि, शशि, अंबर, उन्नत-मस्तक
वे वैसे ही, लघु तन तो चिर-कातर उनकी आत्मा के
महावेग सहने में अक्षम, धरणी के ध्रुव दृग-तारक,
वही लोक के पिता, वही सच्चे सपूत हैं माता के।
पलक खोलना, ढँक लेना है उनको जीवन और मरण,
कभी-कभी जो मुक्त पुरुष आते धरती पर ज्योति-चरण।