hum to gaa kar mukt huye
पल-पल अंधकार बढ़ता है
और नहीं पाँवों में मेरे पहले-सी दृढ़ता है
कंचन-शिखरों पर ललचाया
सारी दुपहर चलता आया
लेकिन कहीं पहुँच भी पाया!
क्यों अब सारा दोष हृदय होनी के सिर मढ़ता है।
कितनी थीं उमंग जीवन में!
कितनी आशायें थीं मन में!
त्याग बिना पर सिद्धि भुवन में!
नभ पर चढ़नेवाला पहले सूली पर चढ़ता है
मैंने आधी प्रीति निबाही
तट से सिंधु-गहनता थाही
मंजिल चाही चले बिना ही
भूल गया हर पथिक यहाँ निज मार्ग स्वयं गढ़ता है
पल-पल अंधकार बढ़ता है
और नहीं पाँवों में मेरे पहले-सी दृढ़ता है
नवम्बर 86