kasturi kundal base

मैं तो तेरे हाथ की कठपुतली हूँ;
क्या हुआ जो सभा में नाचने चली हूँ!
भले ही मेरी लय और ताल साजिंदों के साथ है,
गले की डोर तो सदा तेरे ही हाथ है!
लोग मुझे देख-देखकर सराहते हैं,
अपनी-अपनी धुन पर नचाना चाहते हैं,
पर अपनी विवशता मैं उन्हें कैसे समझाऊँ!
ये अदृश्य धागे खोलकर कैसे दिखाऊँ!
माना कि हर दर्शक उठकर चला जायेगा,
मैं तो वैसे ही नाचूँगा
जैसे तू मुझे नचायेगा !