kavita

किरण

सांध्य घन की सेज पर सोयी हुई
मलय-चुंबित लहलही नीहारिका
काँपती तरु-फुनगियों की ओट से
हँस रही है एक नन्‍हीं तारिका

नमित है वन-प्रांत, पग-तल-भार से
माधुरी में डूबता संसार है
कौन वह अरुणाभ-चरणा षोड़सी
जा रही जो व्योम के उस पार है!

कौन तुम मदिरा पिये-सी, मत्त-सी
स्वर्ग की माणिक-सुधा की चाह में
अरुण पगतलियाँ उठाती जा रही
अटपटी गति से अँधेरी राह में

रात घिरता आ रहा सब ओर से
तिमिर का सागर अथाह समीप है
गहन पथ में पथ दिखाने के लिए
पास में बस एक ही तो दीप है

निठुरता में गड़ी, दुख में डूबती
शून्य में नीरव व्यथा की साँस भर
चल पड़ी एकाकिनी किसके लिए
उठ अचानक इस अँधेरी राह पर

विकच चंपा-माल-सी सुषमा भरी
कनक-लतिका या कि केसर की कली
अभी ही तो, हाय! बिखरे फूल-सी
धूल में तुम लोटती थी बावली

नील नगमाला घटा-सी उठ रही
और चित्रार्णव उमड़ता आ रहा
गाढ़तम जल-थल-अनिल, सब ओर से
बाँसुरी का शोर बढ़ता जा रहा

पीत-मुख शशि दूर हो रुक-से गये
घन कुहासे से चकित भयभीत हो
बादलों-से उच्च गिरि के पार्श्व में
जम गया खग-वृंद का ज्यों गीत हो

सूर्य डूब चुके जलधि की गोद में
उठ रहा है चाँद शरमाता हुआ
शैल-निर्झर की तटी पर उतरता
तारकों का झुंड लहराता हुआ

खोल पश्चिम-व्योम के दृढ़ द्वार वह
पर्वतों की कंदरा में छिप गयी
सिंधु ने झट शंख फूँके, आरती
दसों दिशि नभ-दीपकों से दिप गयी

श्याम होंगे श्याम पर्दे में छिपे
या कि उनका चित्र ही होगा वहाँ
छोड़कर छाया कमल-पग-प्रांत की
साधिका को और आश्रय है कहाँ!