kitne jivan kitni baar
बात अधरों की हुई न पूरी
और झलकने लगी क्षितिज पर सांध्य किरण सिंदूरी
यों तो कितनी बार तुम्हें मैंने सँग-सँग देखा है
पर मन से मिटती न कभी यह संशय की रेखा है
ज्यों-ज्यों पास पहुँचता हूँ, बढ़ती जाती है दूरी
सतत भटकता रहता हूँ लेकर अतृप्त अभिलाषा
अपने मन की पीड़ा को मैं कब दे पाया भाषा!
सब कुछ कहकर भी जीवन की है यह कथा अधूरी
बात अधरों की हुई न पूरी
और झलकने लगी क्षितिज पर सांध्य किरण सिंदूरी