mere geet tumhara swar ho
क्यों तू दुख से वृथा डरे!
बन कोल्हू का बैल निरंतर क्षण-सुख हेतु मरे!
मणि-माणिक तो कंकड़-पत्थर
मान-प्रतिष्ठा शब्दाडम्बर प्रशंसा
अर्थ-काम-सुख जो मृगजल भर
कैसे तृषा हरे!
यदि अंतर चैतन्य-धाम हो
तू अकाम भी पूर्णकाम हो
क्या फिर जग दक्षिण कि वाम हो
तुझे न स्पर्श करे
जो भी चले सत्य के पथ पर
लुभा न सका उन्हें सुख पल भर
दुख की ज्वाला में तप-तपकर
कंचन हुये खरे
क्यों तू दुख से वृथा डरे!
बन कोल्हू का बैल निरंतर क्षण-सुख हेतु मरे!