nahin viram liya hai

प्रेम का महासिंधु लहराता
कैसे रीता हो जो उससे गागर भर-भर लाता!

देता रहे काल नित फेरी
छाँह न छू पायेगा मेरी
क्यों नीरव हो वह जो तेरी

वीणा पर है गाता!

तेरी जिस छवि से
अणु-अणु चमक रहे हैं रवि से
मेरे अंतरवासी कवि से

जुड़ा उसी से नाता

कितना भी गाऊँ, न चुकूँगा
राग बदल लूँ, पर न रुकूँगा
तेरे चरणों में न झुकूँगा

जब तक सृष्टि-विधाता!

प्रेम का महासिंधु लहराता
कैसे रीता हो जो उससे गागर भर-भर लाता!