nao sindhu mein chhodi

मैं इस घर से निकल न पाया
बढ़ा जिधर भी शीशे की दीवारों से टकराया

अस्थि-खंड लेकर निज मुख में
मुग्ध श्वान-सा चर्वण-सुख में
दौड़ा जभी द्वार के रुख में

लिपटी पग में छाया

कभी लाँघ भी ली गृह-रेखा
दर्पण को सम्मुख ही देखा
पढ़ते सतत मुक्ति का लेखा

नव बंधन में आया

तूने जब बाँहें फैलायी
फिर वह छाया आड़े आयी
ठुकराकर जग की ठकुराई

टुकड़े पर ललचाया

मैं इस घर से निकल न पाया
बढ़ा जिधर भी शीशे की दीवारों से टकराया