nupur bandhe charan

सबल की न धनवान की
धरती है भगवान की

जैसे मुक्त समीर है
ज्यों सरिता का नीर है
आतप और प्रकाश है
जैसे नीलाकाश है

वैसे ही हर प्राण की

सबको जीवन प्रेय है
सुख सबका अभिप्रेय है
त्यागी जन ही गेय है
बलिदानी को श्रेय है

जैसे राघव – जानकी

दोनों भुजा पसार लो
बहता बंधु उबार लो
तरो, अन्य को तार लो
करुणा की झंकार लो

सृष्टि बने मुस्कान की

कहाँ द्वैत, दुख, द्वंद्व है
सकल अमृतमय छंद है
बाधा कही न बंध है
आत्मिक ज्योति अमंद है

माया तो अज्ञान की

यही सत्य का मूल
भव-सागर का कूल
प्रेम यही तो फूल
सृष्टि अन्यथा धूल

प्रतिमा ज्यों पाषाण की

गिरता जीवन मोड़ लो
उच्च गगन से होड़ लो
नभ के तारे तोड़ लो
मन को मन से जोड़ लो

गाँठ कटे अभिमान की

तुम अनादि के छंद हो
लघु हो जब तक बंद हो
महाकाश निर्द्वंद्व हो
शुद्ध सच्चिदानंद हो

तुम प्रतिमा भगवान की

फूल, बिखरने के लिये
ज्ञान, सँवरने के लिये
रूप, न डरने के लिये
जीवन, मरने के लिये

भीति हरो प्रियमाण की

धरती कितनी चाहिये?
जिसको जितनी चाहिये
दो डग, इतनी चाहिये
तृष्णा रितनी चाहिये

तृष्णा बेपरिमाण की

कंठ सूखते प्यास से
अमृत झरे आकाश से
आशा से, विश्वास से
दिया जला लो साँस से

नयी फसल हो धान की
सबल की न धनवान की
धरती है भगवान की

1961