nupur bandhe charan

हवा का राजकुमार और रात की रानी

हरे धान की बाँधे कलगी, बना छबीला, बाँका
खेत-खेत उड़ता फिरता था राजकुमार हवा का
हरे बाँस की वंशी मधुर बजाता वह चलता था,
दहनी मुट्ठी में लेकर टहनी की हरी पताका

सात सगी बहनों का प्यारा भाई था वह कैसे!
सात तारिकाओं के दल में चाँद सुशोभित जैसे
नारंगियाँ, बैंगनी, सब्जइ, नाम पड़े थे उनके
सातों बहनें सात त्तरह के रँग की थी कुछ ऐसे

मँहदी की पत्तियाँ कलाई में बहनों ने बाँधी
चला लोटता वीर अचल-शिखरों पर जैसे आँधी
मानसरोवर की शब्या पर दुग्ध-धवल लहरों को
ओढ़ थकित सोया, कोलाहल ने ज्यों चुप्पी साधी

बाल अरुण की तरुण किरण जब पलक-पुटों में आयी
विहँस उठा अधरों में, अलसित-सा लेकर अँगड़ायी
चमरी ने आ चँवर डुलाये देख चिनगियाँ जिनमें
चीड़-वनों में जा मेघों से जलती आग बुझायी

आया जब चिकने, फैले मरुथल की भूरी भू पर
देखा विस्मित हो-हो, दायें-बायें, नीचे-ऊपर
पर न मिला वह दानव, शस्त्रों की सब नीति-कुशलता
विजय नहीं पा सकती थी जिसके अद्भुत जादू पर

कहती जिसका कथा ऊँघते शिशु को थपकी देकर
वृद्धायें नित, बीच-बीच में, खुद भी झपकी लेकर
दूध छोड़कर रूठ-रूठ चलते आँगन में शिशु को
माँयें लौटातीं जिसके आने की भपकी देकर

वह अनदेखा शत्रु कहाँ जिसकी मोटी चोटी में
गुंफित हैं नीली मणियाँ ज्यों नीले कमल नदी में
मर जायेंगी बहनें दुख से, यदि न समय पर लौटा
एक खजूर विटप पर चढ़कर लगा सोचने जी में

एक पहाड़ी झील मुकुर-सी सम्मुख पड़ी हुई थी
जिसमें चील-खचित नीली नभ-छाया गड़ी हुई थी
चारों ओर घाटियों में दुपहर का सन्नाटा था
खंभों से लंबे तरुओं की पाँतें खड़ी हुई थीं

तिनका एक कटी उँगली-सी दक्षिण दिशि में फहरा
देखा बढ़कर गलित लौह-सा सिंधु रहा था लहरा
संध्या को जिन पर सोने की झालर टँगती होंगी
अजगर-सी दो गिरिमालायें देती थीं ज्यों पहरा

वहाँ बँधा था एक घने, भूरे बादल का घोड़ा
राजकुमार चढ़ा झट उस पर ले बिजली का कोड़ा
लहरों के केसर लहराता बढ़ा हिनहिनाता वह,
धरती को मारता कुलाँचे, आसमान पर दौड़ा

नभ का ऊँचापन, जल की गहराई नाप चला वह
चाबुक तो भी एक इशारा, अपने आप चला वह
मुख में मोती भरे झाग-से दरियाई घोड़े-सा,
बुदुबुद के मिटते फूलों पर रखता टाप चला वह

नीलम की घाटियाँ मिलीं, जिनके मणि-गृह-मय तल में
वरुणलोक की सुंदरियाँ, करती विहार थीं जल में
युवक वहाँ के ललचाये फिरते थे बाहर-बाहर–
मधुपों से, पुर-हाट दिख पड़ी लहरों की झलमल में,

राजमहल प्राचीर समुन्नत बने पूर्ण मरकत के
मोती की खेती होती थी अंचल में पर्वत के
भोजन की रंगीन मछलियाँ जगह-जगह बिकती थीं
सघन पथों पर, स्वर्ण-कलश-मंडित थे द्वार रजत के

मैदानों में क्रीड़ित थे शिशु, चढ़ जहाज पर डूबे
तिरते जिनके बीच नाविकों के शिर जैसे तूँबे
शंबूकों में कंबु-ग्रीवः बालायें जंबुक-भक्षित
जिनके हीरक-दृग थे प्रिय की राह देखते ऊबे

आगे मिली गुफा गहरी जिसकी बाहरी शिला पर
बंदी सिंह-सदृश पछाड़ खा रोता था रत्नाकर
भीतर चंद्रकांत मणियाँ थीं जड़ी हरित भीतों में
जो दिन में प्रकाश, निशि में शीतलता की थीं निर्झर

छोड़ अश्व को बढ़ा वीर मन में यह आशा लेकर
शायद इधर गया हो वह दानव निज नौका खेकर
जगह-जगह, उसकी साँसों से पत्थर छिले पड़े थे
सागर ने पहुनाई की थी थाल अमृत का देकर

बड़े-बड़े नींबू से पीले, लाल हजारों हीरे
छत से लटके मिले हवा में हिलते धीरे-धीरे
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा, गुफा का हुआ मार्ग भी सँकरा
अड़े सामने चंदन के शहतीर तुरत के चीरे

गुफा बीच सरि बढ़ती थी ज्यों निशि में पुच्छल तारा
अंधकार को भेद चली थी या प्रकाश की धारा
एक हरित मछली कौ नौका राजकुँवर खेता था,
जिसकी पाँखों की चपेट से बिखर रहा था पारा

जिनकी मणियाँ लहरों के नर्तन में चमक रही थीं
कस्तूरी-सौरभ से वे दीवारें गमक रही थीं
थे मृदंग गुंजित, वीणा के सम पर झम से होती,
क्वणित किंकिणी, रुनझुन-रुनझुन पायल झमक रही थी

मुड़ी हथेली फैला कहती, ‘प्यार लुट रहा ऐसे’
नाच रही हो मत्त उर्वशी इंद्र-सभा में जैसे
शीश हिलाती, पीछे झुकती, सुरधनु-सी बाँहों में
भौं चमका, उन्मत्त बनाती, भाग चली ज्यों भय से

वंदी सहसा खिलखिल ध्वनि से आँगन भर देती-सी
सहमति में लज्जारुण आनन अवनत कर लेती-सी
नर्तन की लीलायें स्वर में चित्रित लहराती थीं
आगे नाव लिये जाती थी आप लहर खेती-सी

आधा अंग मत्स्य का कोमल लाल, बैंगनी, पीला
कटि से ऊपर नारी का तन, सुंदर, सहज लचीला
शत-शत गुहा-वासिनी परियाँ जल से निकल-निकलकर
देख रही थीं अपने घर में आज नयी ही लीला

कोई-कोई छवि से मोहित निकट नाव के खिँच आ
उस्कक चूम लेतीं कुमार का अरुण अधर-पुट निचला
सिंह-सदृश प्राचीन कला के युगल स्फटिक-स्तंभों पर–
टिका हुआ, आ गया गुफा का रजत-द्वार भी बिचला

आगे विस्तृत उपवन-सा था झिलमिल मृदु लहरों में
जैसे तट की तरु-मालायें बिबित हों नहरों में
रंग-बिरंगे फूल हजारों झलमल झूल रहे थे
जुगनू से ज्योतित, जैसे दीपावलि हो शहरों में

झाड़ और फानूस सदृश घड़ियाल तले ही सिमटे
वृहत्‌-द्वीप से जगह-जगह बिच्छू थे जल पर चिपटे
हाथी के पैरों-से मोटे चंदन के खंभों में
सिक्‍कड़-से चमकीले, काले, जल-भुजंग थे लिपटे

थे प्रवाल-बृंतों पर लटके जलपरियों के लत्ते
बीच-बीच में टँगे हुए ज्यों मधुमक्खी के छत्ते
रत-जड़ित लतिकायें, तरु, नीले जल में झलमल थे
ऊपर-ऊपर फूल खिले थे, नीचे-नीचे पत्ते

मध्य भाग में उपवन के वह राजभवन था ऊँचा
नीलम की ईंटों से ही जो विरचित हुआ समूचा
विस्तृत कक्षों से होता, चढ़ता मणि-सोपानों पर
राजकुमार सभा के सज्जित द्वार-निकट आ पहुँचा

तप्त कनक की पीटी भीतें, गेरु घुला ज्यों जल में
जल न रही थी राज-सभा झलमल हो अग्नि तरल में
स्तब्ध कुमार चकित हो सम्मुख देख रहा था ठिठका
जल-जीवों की सभा जुड़ी हो जैसे सागर-तल में

दीप-शिखाओं से बिंबित छत, जगमग थी सोने-सी
गेंदा के फूलों से पूरित नीलम के दोने-सी
नाच रही थी एक अप्सरा चंचरीक-सी जिसमें
नयनों के कोनों से करती कुछ जादू-टोने-सी

मखमल की कालीनों पर बिखरी थी मौक्तिक-माला
हरे धान की बाली पर ज्यों पड़ा हुआ हो पाला
जगमग नीलम के खंभों में नर्तित थी वह ऐसे
नील नीरदों में ज्यों नर्तन करती विद्युत्‌बाला

सूखे पाटल-के दल-सें थे नव प्रवाल-कण फैले
जो पगतलियों की लाली में लगते थे मटमैले
था मयूर-आसन पन्ने का एक ओर ऊँचा-सा
जिसके दोनों ओर झुके थे काले नाग विषैले

और उसी सिंहासन पर ही राज-पुत्र ने देखा
(झलक उठी थी मुख पर उसके भय की अस्फुट रेखा)
अंधगुफा का दानव निज पुत्री के सँग बैठा था–
हिम-गिरि-सा, अंकित हो जिसमें द्वाभा की विधु-लेखा

लहराती थी उजली दाढ़ी वन की उपत्यका-सी
थी ललाट पर दो रेखायें, मूर्तिमती जड़ता-सी
सांध्य-गगन-सी धूसर आँखें धुँधले तारोंवाली,
वट-शाखाओं सी थीं जिनमें डोरों की नक्कासी

वक्ष-कपाट भरी सरिता के पाट-सदृश थे चौड़े
तट के जड़ पीपल-सी बाँहें, रक्त न जिनमें दौड़े
कभी नृत्य के सम पर चरण-अँगूठा जो उठ गिरता
ध्वनि होती थी एक साथ ज्यों गिरे हजार हथौड़े

दोनों ओर सभासद बैठे लेकर बर्छी-भाला
क्रमशः छोटे होते जैसे गिरि-शिखरों की माला
रावण की थी राज-सभा ज्यों सजी त्रिकूट-शिखर पर
सूर्य, चंद्र, तारे जल-जलकर करते थे उजियाला

राजकुमारी सजी रेशमी पट के आवरणों से
चरण-पीठिका पर लिखती थी कुछ अरुणिम चरणों से
काले, घने केश बिखरे थे गोरे भुजमूलों पर
नीले घन ज्यों जल भरते हों कंचन के झरनों से

गंधक के निर्झर-सी थी वह कोमल अंगोंवाली
जिसके आलिंगन में होती ऊष्ण नसों-की-जाली
स्पर्श अरुण अधरों का हलका मदिरा-सा उत्तेजक
सुलगा देती आग हृदय में, श्वास-सुरभि मतवाली

कंपित वक्ष प्रताड़ित करती उड़-उड़ साड़ी झीनी
उड़ती चारों ओर सुगंधित रसफुहार थी भीनी
देह-लता दंशित न हुई थी अभी कुटिल भ्रमरों से
सहज अछूता था यौवन-मधु, अधरों की रंगीनी

देख रहा था राजकुँवर चुप खड़ा मुग्ध कोने में
आँखें मिलीं परस्पर सहसा ज्यों सुगंध सोने में
प्रतिबिंबित थीं युगल पुतलियाँ, मुख पर लाली दौड़ी
कितनी देर लगा करती है भला प्रेम होने में!

भौहों में झुक मान कर लिया, पलकों में झुक बोली
शलभों के आतुर चुंबन में दीपशिखा-सी डोली
उद्वेलित उर, झूली तन्‍मयता के मृदु झूले पर
दूर-दूर से प्रथम मिलन की सारी बातें हो लीं

भोली पुतली पूछ रही थी कुछ नीले नयनों में,
जैसे श्याम मधुप विस्मित हो नील कमल-अयनों में
स्निग्ध दुग्ध-धारा-सी चितवन मुड़ी न मोड़े से भी
बतलाते थे चकित सभासद आपस में सैनों में

सहसा उठी उमंग सदृश वह हीरक-सिंहासन से
ज्यों उठती अरुणाभा मुख पर प्रेमभरे चुंबन से
मिलनातुर उर की धड़कन-सी आतुरता से चलकर
आयी प्रिय के निकट, रोष ज्यों बेबस भुज-बंधन से

ठिठक तनिक जैसे अभिलाषा असफलता के भय में
लज्जित होती नयी वधू ज्यों प्रथम प्रणय-परिचय में
पहना दी बढ़कर कुमार को उसने निज वरमाला
नखत-हार ज्यों ऊषा पिन्हाती रवि को अरुणोदय में

शीश छिपा था वक्ष-बीच, ग्रीवा में लिपटी बाँहें
जैसे मधुर मिलन में प्रेमी दूर न होना चाहें
हृदय धड़कता था, तनु-लतिका रह-रह काँप रही थी
गर्म-गर्म आँसू कढ़ते थे, ठंडी-ठंडी आहें

मधुर गंध की लपटें उठतीं घुली-मिली साँसों से
अधर पी रहे थे अधरों को झुक-झुककर प्यासों से
मृदुल मोम की पुतली-सी वह आलिंगन में घुलती
कितना सुख संग्रह कर पाती कंपित भुजपाशों से

क्रुद्ध उठा दानव कर मलता मानो यह सपना था
फूटीं अग्नि-शिखायें मुख से, भौं का धनुष तना था
थर-थर काँप रही थी परिषद पीपल के पत्ते-सी
धू-धू करके सुलग रही थी दाढ़ी, धुआँ घना था

इंद्रधनुष पर विद्युत-शर को रख कुमार ने मारा
और उधर से ज्वाला छूटी दृग की किरणों द्वारा
टूटे मरकत-स्तंभ, भवन हो द्रवित बह चला जल-सा
अंबर-चुंबी हिम-श्रृंगों से जैसे निर्झर-धारा

डगमग ज्यों ब्रम्हांड, खगोल विकल ज्यों टूट रहे थे
दशों दिशाओं बीच ज्वलित अंगारे छूट रहे थे
नगरों-सहित अचल पिस-पिसकर धँसते जलनिधि-तल में
फाड़ धरा को तरल अग्नि के निर्झर फूट रहे थे

पर्वत के शिखरों पर पर्वत उलट-उलटकर गिरते
लहरों पर पत्तों-से थर-थर द्वीप-पुंज थे तिरते
महादेश कितने कट-कटकर जुड़े अन्य देशों में
रवि-शशि भीत विहग थे नभ में शरण ढूँढ़ते फिरते

बही सभा पर अचल प्रिया-प्रियतम दोनों थे कैसे!
भरे हुए भादों के नद में तट-तरु-छाया जैसे
देह न कटती आर-पार आयुध हो जाने पर भी
नीचे की धरती का राजा काँप रहा था भय से

अट्टहास फिर शांत प्रकृति में, दोनों पक्के धुन के
रुका वीर-रस-सा कुमार कुछ करुण याचना सुनके
राजकुमारी सज श्रृंगार-सी प्रिय के आगे आयी
एक साथ ही जुड़े नवों रस, आलंबन भी उनके

सब अनुभाव, विभाव और संचारी रहें भले ही
स्थायी में तो भाव करुण के आये, किंतु, चले ही
पछताता था पिता, हुई हठधर्मी, प्रेम ने जाना
छूट चुका था भाला कर से प्रियतम के पहले ही

चीख उठा दानव पर सहसा रुकी नोक भाले की
कठिन सुवर्ण-कलश से टकरा झुकी नोक भाले की
मूर्छित गिरा कुमार प्रिया की मृत्यु समझ निज कर से
छू पायी थी पर केवल कंचुकी नोक भाले की

दौड़ा राक्षस-राज अंक में रख कुमार के सिर को
यह मंत्रित मणिदंड दृगों पर लगा फेरने स्थिर हो
जिसके इंगित से नभ का नीला फाटक खुल जाता
राज-मार्ग दिखता जो सीधा जाता सुर-मंदिर को

जहाँ देवपति बिठा उर्वशी को सम्मुख अति सुख से
भर-भरकर मदिरा का प्याला लगा रहा हो मुख से
आठों पहर सुरा से- बेसुध, अलसित पलकोंवाली
ढीठ सौत को देख रही हो शची रोषमय दुख से

उसी दंड के कंपन से यह शून्य नास्ति की सत्ता
मुखरित हो उठती है जैसे मधुमक्खी का छत्ता
दिशा-यवनिका हट जाती झिलमिला स्पर्श से उसके
मंद-मंद मारुत के द्वारा ज्यों पीपल का पत्ता

और स्वप्न का लोक झलकता वह मौक्तिक-झलकों में
चित्र उतरते जिसके शिशु की नींदभरी पलकों में
मृदु कुमारिका के अधरों पर स्वप्निल चुंबन बनकर
प्रणय-स्पर्श की सिहर मानिनी की बिखरी अलकों में

जिसकी छाया इंद्रजाल-सी तरुण हृदय को छलती
सलज प्रिया-पलकों में प्रति-पल नूतन वेश बदलती
राजकुमार उठा झट होकर स्वस्थ उसी जादू से
देख कुमारी को विस्मित थी चेतनता दृग मलती

ले कन्या की मृदुल हथेली वृद्ध पिता ने पल में
रख दी पुलकित हो कुमार के तरुण, अरुण करतल में
गोल-गोल गोरी बाँहें कुछ मिली हुई थीं ऐसे
पत्नी का चुंबन करता हो ज्यों ऐरावत जल में

मन्मथ के सँग रति हो जैसे बूढ़े विधि ने ब्याही
यौवन से मिलने आयी हो मानो सुंदरता ही
सूरज और चाँद-सी जोड़ी लगती थी दोनों की
बाँट रहे थे सचिव सभी को स्वर्ण-राशि मनचाही

साठ करोड़ थाल मरकत के मोतीभरे पड़े थे
अरबों मणिमय कलश भृत्य-गण सिर पर धरे खड़े थे
हीरों की बोरियाँ सहस्रों थीं दहेज को प्रस्तुत
लाल-लाल विद्रुम-हारों में पन्‍ने हरे जड़े थे।

सात लाख परियाँ जो पुरुषों द्वारा रहीं अछूती
एक-एक पर सौ नर्तकियाँ यौवन मद से चूती
पहले से ही राजकुमारी के भू-केलि-गृहों में
भेजी कोकिल-कंठ तरुणियाँ बना-बनाकर दूती

कितने कोमल अंगों पर थीं सतरंगे पट पहने
कितनों के उर पर जगमग थे मृदु मोती के गहने
मुकुलित, विकच, अर्ध-विकसित यौवन ले अपना-अपना
लाखों परियाँ चलीं कुमारी के सँग भू पर रहने

जो गुनगुन गाते थे जिनके कुंतल घुँघराले थे
आठ पहर मदिरा पीकर जो रहते मतवाले थे
जिनकी छेड़छाड़ से रहतीं तरुण दासियाँ व्याकुल
हबसी-बाल मधुप दल भी नीली आँखोंवाले थे

शुक-सी नाक नुकीली जिनके ओंठ अरुण थे मधु से
कुछ पिक-बदनी करती थीं परिहास सलज नव वधु से
राज-हंस की आकृतिवाली पन्‍ने की नौका पर
चले कुमार-कुमारी दोनों गलित सुरभि के नद से

वृद्ध गँवा आँखों की पुतली, अश्रु रहा था ढलका
मानो वरुण करुण हो सागर बहा रहो हो जल का
याद आ रही थी उस दिन की, मृत्युसेज पर अपने
सौंप रही थी प्रिया एक शिशु जब फूलों-सा हलका

अनुनय भरे दृगों से कहती बिलख रहे प्रियतम को
हाय | इसीके लिये विश्व में रखना, देव! स्वयम्‌ को
और ब्याह हो जाने पर भी अपने दृग के आगे
कभी वर्ष में इसे न रखना चार मास से कम को!

‘करुण हृदय से कढ़ी आह-सी नाव बढ़ी जाती थी
अतल, वितल, पाताल-गढ़ी से ऊर्ध्व चढ़ी जाती थी
अँगड़ाई ले जाग रही थी धरती पर हरियाली
मुक्तावलि से मरकत की पत्तियाँ मढ़ी जाती थीं

चित्रित थी प्रिय-पार्श्व-भाग में मणिमय अंचल खींचे
राजकुमारी क्षीर-सुता-सी शेष-फणों के नीचे
सजी अर्ध हिमकर-सी नौका मंद-मंद बहती थी
भू के कुसुमित कुंजों में से, प्रेम-वारि से सींचे

नाग-दंत की वीणा लेकर मृदु आंदोलित सुर में
एक बालिका बजा रही थी सम्मुख मीठे सुर में
मकड़ी के जाले-से पंखे दोनों दिशि झलते थे
लहरें उठ-उठकर देती थीं ताल रश्मि-नूपुर में

वल्लरियाँ परिचित-सी कर-चेलों को हिला रही थीं
कलियाँ किसमय-अंचल में से मृदु खिलखिला रही थीं
परिचित वन-तरु कुंज, तितलियाँ इधर-उधर थीं उड़ती
दौड़ गले लग-लगकर वे सखियाँ खिलखिला रही थीं

रक्त कमल-से अधर, दुग्ध-सी जिनकी चितवन-धारा
कितनी परियाँ निकलीं भू से बन-बनकर फव्वारा
चम्पा, बेला, नर्गिस कितनी, रूप बदल कर पथ में
धोखे से आलिंगित होती थीं कुमार के द्वारा

नीली थी कंचुकी किसी की गोरा-गोरा तन था
काँटेदार किसी की साड़ी, उलझ रहा दामन था
आँखें मटकाती थी कोई बाँध हवा मुट्ठी में
राजकुमारी की भौं में बल देख रुका चुंबन था

काँप उठा प्रिय देख प्रेयसी की पलकों में पानी
दौड़ी आयीं सातों बहनें कहती यों दीवानी
पाटल, जुही, कमलिनी, बेला चाहे दिन भर चटकें
लेकिन रात तुम्हारी होगी सदा, रात की रानी!

1943