sita vanvaas

‘नहीं भी लौट अवध में जाये
पर यह दासी कभी आपसे अलग न, प्रभु! कहलाये

‘जब-जग कीर्ति आपकी गाये
इस वनवासिन को न भुलाये
सब पाया प्रभु-दर्शन पाये

अब क्‍यों मन अकुलाये’

“जो दुख क्षण-क्षण राजभवन में
नाथ! आपने झेले मन में
उनकी तुलना में तो वन में

मैंने सुख ही पाये

‘लवकुश! उठो, पिता से भेंटो
पग से लिपट न रोओ, बेटो
जननी की दुश्चिंता मेटो

    चलते क्षण मुस्काये’

नहीं भी लौट अवध में जाये
पर यह दासी कभी आपसे अलग, न प्रभु! कहलाये