sita vanvaas
‘गोद में ले ले धरती माता!
रहे न अब से मेरे कारण पति का जी सकुचाता
‘यदि मैं तन-मन से रह निर्मल
जपती रही उन्हींको प्रतिपल
तो, माँ! ढँक मुझ पर निज आँचल
अब दुख सहा न जाता!
मुनिवर! कभी शरण दी वन में
दें आसीस विदा के क्षण में
अब न मुझे कर सकें भुवन में
पति से दूर विधाता
“लक्ष्मण! मन में शोक न करना
बंधुगणों सँग धीरज धरना
बहनों! जनक-जननि-दुख हरना
था इतना ही नाता!
‘गोद में ले ले धरती माता!
रहे न अब से मेरे कारण पति का जी सकुचाता’