mere geet tumhara swar ho
व्यर्थ करुणानिधि नाम धराया
यदि तेरी करुणा का कण भी मेरे काम न आया
जब कर्मों का फल ही पाता
क्यों मैं तुझको रहूँ मनाता !
क्यों न समझ लूँ, तुझे, विधाता!
जग से मोह न माया
पर जब महाशून्य हो आगे
सुगति, शान्ति किससे मन माँगे!
बन असंग यदि तू ही त्यागे
शरण कौन दे पाया!
और न कुछ तो प्रेरक ही बन
कर दे सद्प्रवृत्तिमय जीवन
हो श्रद्धा-विश्वासभरा मन
छले न भय की छाया
व्यर्थ करुणानिधि नाम धराया
यदि तेरी करुणा का कण भी मेरे काम न आया