alok vritt

द्वितीय सर्ग

भाव रूप ले ज्यों शब्दों में, शब्द गीत की लय में
वैसे रूप मधुर मोहन का बढ़ने लगा समय में
चिता व्याप्त हुई शिशु-मन में—‘ गोरों का शासन क्यों
टूट न पाता है प्राणों की जड़ता का बंधन क्‍यों?
कौन सिद्धि यह, मंत्र कौन जो शक्ति उन्हें देता है?
करवट क्‍यों इतिहास हमारी ओर नहीं लेता है?
त्रुटि बल की, संकल्प-शौर्य की या साधन की त्रुटि है
शांत न होती तनिक दैव की हम पर तनी भृकुटि है?
फैले हैं पदचिह काल पर विफल-काम वीरों के
पूरब-पच्छिम-उत्तर-दक्खिन सेतु बँधे तीरों के
पर स्वतंत्रता-देवी को हैं ये बलिदान न भाते
क्यों सारे उद्योग हमारे योगश्रष्ट हो जाते
रुधिर मनुज का पीकर भी क्‍यों दनुज जयी होते हैं?
जो पीते हैं सुधा सुधाकर-सदृश क्षयी होते हैं?
क्या न उचित आमिषभोजी हम हों सशक्त तन-मन से !
स्वतंत्रता के बिना धर्म की आशा क्या जीवन से!
पर आमिष के लिए द्रव्य चोरी से लाना होगा
घर से दूर, छिपाकर ही फिर उसको खाना होगा
पूछेगी जब माँ—“रोटी क्‍यों तुझे नहीं भाती है?”
कहना होगा झूठ, सोचकर ग्लानि बहुत आती है
पर मुझको सब सह्य मुक्ति यदि पाये भारतमाता
साध्य हमारे ठीक रहें तो साधन से क्‍या जाता!
कोई भी बलिदान न भारी पथ में स्वतंत्रता के
मिलता है जय-मुकुट यहाँ पर अपना शीश कटाके’
स्वतंत्रता की तीव्र बुभुक्षा बहा ले गयी मन को
अनुचित-उचित विचार न सूझा मोहभरे मोहन को
करने लगे मांस-भक्षण गुरुजन की आँख बचाकर
भुला ग्लानि मन की, घर से पैसे भी कभी चुराकर

झूठ और चोरी पर मन से वहन नहीं होती थी
गुरुजन के प्रति यह प्रवंचना सहन नहीं होती थी
और एक दिन निशि के सूनेपन में रुग्ण पिता के
चरणों पर रख पत्र एक, सुत बैठा शीश झुकाके
पत्र नहीं वह प्रथम पाठ था आत्म-शुद्धि के जप का
जड़ीभूत हिम-से प्राणों पर लेपन शरदातप का
यज्ञ-कुंड था वह जिसमें कुल कल्मष दग्ध हुए थे
पाँव न, सुत ने रूग्ण पिता के मन के तार छुए थे
पिता-पुत्र की जो उमड़ी सम्मिलित अश्रु की धारा
मन का छल-पाखंड-पाप उसने धो डाला सारा
देख अलौकिक सुमन स्वकुल में फूल उठा माली था
एक बार त्रेता में ऐसा पिता भाग्यशाली था
स्वजनों से सुनकर सुत ने जो लीलायें की वन में
होता होगा ऐसा ही आनंद नंद के मन में
बीजापुर के कारागृह में बंदी पड़े पिता की
पुलक-प्रीति ऐसी ही होगी सुनकर विजय शिवा की

यों ही बढ़ता गया समय, आयी विवाह की वेला
सोचा यह भी खेल नया कुछ जैसा अब तक खेला
मिली राम को सीता जैसे, शिव को मिली शिवानी
कुंदन को कस्तूरी की शुचि सुरभि, भाव को वाणी
तेजमयी, गुणमयी, समर्पित भी चिर-गौरव-भरिता
हरित नील जलनिधि में जैसे धवल-चरित नभ-सरिता
प्रिय की अनुगामिनी, कामिनी, पावन शोभावाली
नयी कोंपलों से मंडित जैसे रसाल की डाली
सदियों से खोयी स्वतंत्रता ज्यों स्वदेश में आयी
मोहन के सँग नव-परिणीता त्यों कस्तूरीबाई

वह यौवन का उषाकाल था, नया राग, नव वीणा
चली उमड़ती लहर प्रेम की चिर-यतिहीन, नवीना
मोहाच्छन्‍न मधुप हो जैसे कमल-कोष में फिरता
जैसे अतल सुधा-धारा में मुग्ध मीन हो तिरता
उधर पिता की भक्ति, नयी अनुरक्ति इधर यौवन की
युगल विरोधी धाराओं में गति विमुग्ध थी मन की
किसे न कर देता तरुणी का भ्रू-विलास मतवाला!
मन्मथ धन्य, प्रमथ-नायक का जिसने मन मथ डाला
कालकूट का पान सरल है शर-शय्या पर सोना
अपने हाथों से अपने ही सिर की भेंट सँजोना
सरल विभव का त्याग, भस्म सर्वांग चिता की रचना
किंतु कठिन है मृगनयनी के नयन-शरों से बचना
रास खींचकर ढीठ तुरग-से मन की, श्रद्धानत हो
रुग्ण पिता की सेवा में रहते थे सतत निरत जो
लिया काम ने उनसे क्या प्रतिशोध कि अंतिम क्षण में
प्रिया-अधर-मधु-लुब्ध, न वे रह पाये पिता-चरण में |

ज्यों मँझधार बीच माँझी ने पाल समेट लिया हो
आँधी ने जैसे रजनी में दीपक बुझा दिया हो
तप-वर्षा-हिम-वात सहन करते जिसके प्रांगण में
सहसा वह प्रासाद तिरोहित हुआ एक ही क्षण में

शैशव से तारुण्य, और फिर आती भग्न जरा है
इस बलि होती परंपरा में कौन कहाँ ठहरा है!
पिता पुत्र में लौ अपनी आलोकित कर जाता है
चिर-अनादि से वही ज्योति का तंतु चला आता है

एकाकी असहाय सिंह-शिशु ज्यों अजान वन-पथ पर
निर्भय बढ़ता है चढ़कर अपने पौरुष के रथ पर
वैसे ही जीवन के तट पर एक किशोर खड़ा था
भारत का भविष्य जिसके करतल में मुँदा पड़ा था