alok vritt
चतुर्थ सर्ग
‘आधे में आलोक और आधे में तम छाया है
घूम रही धरती पर सबने सम प्रकाश पाया है
धुरी मनुजता की पर सदियों से अवरुद्ध हुई है
अंधकार थिर कहीं, कहीं चिर-ज्योति प्रबुद्ध हुई है
डगता है स्वातंत्रय-सूर्य, पर आधी ही धरती पर
आधी पर है घिरी दासता की तम-निशा भयंकर
आधे में वैभव विराट है, सुख है, शीतलता है
पर आधे में दुख-ही-दुख है, भय है, विहलता है
एक ओर होती है कंचन-वृष्टि, सुरा ढलती है
महानाश है किंतु दूसरी ओर, चिता जलती है
खंडित है मानवता का मंदिर, मानव खंडित है
शांति, सभ्यता, स्वतंत्रता खंडित है, भव खंडित है
एक चेतना की धारा, पर क्यों यह द्वैध-विषमता?
उधर अमृत, विष इधर, भेद यह जल पर कैसे थमता ?
जब अंबर से निखिल भुवन पर जीवन बरस रहा है
कैसे आधा सूख गया जग, आधा सरस रहा है?
सबको दाहक अग्नि और जल सबको शीतल करता
सुखकर है प्रकाश सबको ही, कौन न तम से डरता!
जन्मसिद्ध अधिकार मनुज का न्याय-शांति पाने का
स्वतंत्रता का, सुख का, जीने का, हँसने-गाने का
अवसर की समता का, मनचाहे जीवन-यापन का
आत्मोन्नति का, आत्मा में परमात्मा के दर्शन का
तब कैसे ये कोटि-कोटि जन दास बने जीते हैं
अमृत निकाल बाँट देते जो, आप गरल पीते हैं?
किसने छीन लिया इनका अधिकार मनुज रहने का?
कैसे बन अभ्यास गया अपमान-घृणा सहने का?
‘वे कम दोषी नहीं कि जो जीने को ही मरते हैं
डर से अत्याचारी का प्रतिरोध नहीं करते हैं
घिक् मानव जो मानवता का मूल्य नहीं पहचाने!
सहा करे दासत्व-यंत्रणा भय से चुप्पी ठाने!
भय ही तो वह विष है जो जीवन को कलुषित करता
अप्रतिहत वाणी-विचार को दुर्बलता से भरता
अमृत-पुत्र, आलोक-सूत्रधर, आत्म-दीप, स्वर्जेता
जिससे हो आक्रांत निमिष में सिर नीचा कर लेता
एक फूँक आत्मा की पल में जिसे उड़ा सकती है
मानव-मन की दुर्बलता ही जिसे टिका रखती है
‘कोटि-बाहु-मुख-पदवाला यह कौट भयानक भय का
मकड़ी-सा जग को बाँधे है, दृश्य यही विस्मय का
रेंग रही इतिहास-फलक पर इसकी काली छाया
दूर अनागत पर भी इसने अपना जाल बिछाया
इस कालिय को नाथ अभय की वंशी बिना बजाये
संभव नहीं काल-कालिंदी अमल-धवल हो पाये’
करता था विचार यों बैठा एक पथिक एकाकी
घूम रही थी नयनों में कुछ पल पहले की झाँकी
गोरे यात्री ने जब था गाड़ी से उसे उतारा
नीति-न्याय-अधिकार गये थे कुचले बल के द्वारा
कालों को अधिकार नहीं जो गोरों की समता का
यह तो एक प्रतीक-मात्र है बल की निर्ममता का
पर कितने रूपों में क्षण-क्षण अंतर को डँसता है
वर्ण-श्रेष्ठा का यह तक्षक, कौन बता सकता है!
आत्मा बँटी, विचार बँटे, बँट गयीं जातियाँ दल में
मानवता बूँट गयी इसी मिथ्याभिमान के छल में
रंग देखकर हो तन का क्या वह लघु-महत् बनाता!
नहीं मनुज ही, अपमानित हो रहा मनुज-निर्माता
जो निष्क्रिय अन्यायों-अत्याचारों को सहता है
भय से, लालच से शासन के दोष नहीं कहता है
जिसकी चुप्पी ने स्वीकारा रंग-भेद का दावा
वह कम दोषी नहीं झूठ को जिसने दिया बढ़ावा
पशुबल ने जो आज चुनौती दी है अपने बल की
क्या झेलूँ सिर झुका उसे मैं, पी लूँ लहर गरल की ?
अर्थ-काम को भर्जूँ चराचर जिनके चिर-अनुचर हैं?
या फिर धर्म-मोक्ष को ढूँढूँ जो इनके ऊपर है?
देश-देश में भटकाया है जिसने मुझे अकेले
मैं तो उसके कर का कंदुक, जैसे चाहे खेले
आगे-आगे वही प्रकाशित करता है पथ मेरा
गीता-पुरुष. वही तो बैठा हाँक रहा रथ मेरा!
‘करूँ भविष्यत् की चिंता क्यों जो अजान, अश्रुत है!
मुझको एक चरण अगला ही दिखता रहे, बहुत है
आज दिये की लौ-सा वह मुझको दिखलाई पड़ता
वर्ण-भेद का कंटक यह जो पाँवों में है गड़ता
इस काँटे को बिना निकाले यदि आगे बढ़ जाऊँ
तो मैं भी अत्याचारों का पोषक क्यों न कहाऊँ!
धिक् मानव जो केवल धन के लिए जिये, मर जाये!
धिक् जीवन जो अपमानों में सुख की सेज बिछाये !
स्वाभिमान-स्वातंत्रय-रहित वैकुंठ नहीं अच्छा है
प्रोमिथियस मुक्तात्म सुलगता रहे, कहीं अच्छा है
पर कैसे प्रतिकार असत् का, हिंसा का पशुबल का?
कैसे संभव शमन द्वेष के इस नरमेध-अनल का?
अधिक असत्, हिंसा, पशुबल से, अधिक द्वेष फैलाकर ?
या जन-जन की आत्मा में सोया देवत्व जगा कर?
हिंसा से तो जीत उसीकी जो समधिक बलशाली
जिसकी भुजा सबलतर, आयुध श्रेष्ठ, अचूक दुनाली
जो कहते हिंसा के रण में जीत न्याय की होती
तृप्ति ढूँढ़ते मृगजल में वे, कमलपत्र पर मोती
तलवारों की मिली विजय तलवारों से छिन जाती
प्रतिद्वंद्धात अनंत शक्ति की शेष नहीं हो पाती
विजय न्याय को बल से, तो वह बल की ही जय होगी
विजय हृदय-परिवर्तन से हो, वही विगत-भय होगी
‘पशुबल के सम्मुख आत्मा की शक्ति जगानी होगी
मुझे अहिंसा से हिंसा की आग बुझानी होगी
सोया जो अंतःसाक्षी विभु, उसे जगाना होगा
बनकर प्रेम-कृपाण विरोधी मन तक जाना होगा
सम्मुख उठता हाथ नहीं, तब रोष शिथिल पड़ जाता
बाह्य भेद को चीर उभरता मानवता का नाता
शस्त्र सामने देख शस्त्र प्रतिरोध हेतु बढ़ते हैं
किंतु अहिंसक प्रतिपक्षी के आगे पग अड़ते हैं
तभी विरोधों का कारण, औचित्य समझ में आता
हाथ भले ही उठे किंतु मन तो झुकने लग जाता
प्रेम सृष्टि का मूल धर्म, चेतन का नियम सनातन
इसके कारण ही विनाश से बचा आज तक जीवन
यदि धारा बहती न प्रेम की जननी के अंतर में
केवल पय से बच पाता मानव-शिशु विश्व-समर में!
यही प्रेम की महाशक्ति लेकर मैं आज बढूँगा
छोड़ूँगा न इसे, ईसा-सा सूली भले चढूँगा
‘जिसने मारा मुझे, कौन वह? हाथ नहीं क्या मेरा!
मानवता तो एक, भिन्न बस उसका-मेरा घेरा
इस घेरे को तोड़ सका है प्रेम, न शक्ति विजय की
शस्त्रों से तो बढ़ती ही जातीं परिधियाँ हृदय की
क्या होगा परिणाम सोच लूँ, पर क्यों सोचूँ वह तो
मेरा क्षेत्र नहीं, सृष्टा का, जो प्रभु करें, वही हो
जिनपर मेरा सतत नियंत्रण रहें विमल वे साधन
साध्य अभिन्न सदा उनसे, जिस तरह कार्य से कारण
व्यर्थ लक्ष्य का सोच, सही पथ, गति यदि सुदृढ़ चरण में
गति से भिन्न नहीं कोई गंतव्य कभी जीवन में’
अंधकार बाहर, कितना भी हिम-प्रवाह चलता था
यह विचार का तेज हृदय में दीपक-सा जलता था
अरुणिम सूरज उगा नये जीवन का, नयी उषा का
वर्ण-द्वेष की काल-निशा में सहसा हुआ धमाका