anbindhe moti

आज घर इतने दिनों पर चांदनी आयी

शैल, नद, घाटी वनों में डोलती अनजान-सी
लौट आयी आज फिर भूली हुई पहिचान-सी
बादलों की ओट से मुड़-मुड़ कलानिधि देखता
रूप की प्रतिमा हुई धुल अश्रु से अम्लान-सी

मुक्त कुंतल ले अनंत विषादिनी आई

फिर रहे अनुचर प्रतनु घनशिशु गगन के गेह में
कुंद आभूषण सजे कुंदन सदृश कृश देह में
कल्पना की पट्टिका पर स्वप्न के कर से लिखी
अर्चना की धूम-रेखा-सी गई बन स्नेह में

खिलखिला हँसती हुई उन्मादिनी आई

कष्ट हैं क्या-क्या न झेले विरह-पारावार में !
साँस की डॉडें न छूटीं आँसुओं की धार में
क्षीण आशा की पकड़ पतवार, चलती ही रही
ज्योति छलती ही रही इस पार से उस पार में

श्याम मेघों में छिपी ज्यों दामिनी आयी
आज घर इतने दिनों पर चाँदनी आयी

1948